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बृहत्कथाकोश / ७३९
अ० २३
इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि उक्त ग्रन्थों के लेखक-लेखिका द्वारा उद्धृत श्लोक में स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है, अपितु क्रमशः या परम्परया (पुरुषशरीर धारण कर दैगम्बरी दीक्षा द्वारा) मुक्त होने का कथन है ।
इसी क्रम से रुक्मिणी के भी मोक्ष पाने का वर्णन बृहत्कथाकोश के लक्ष्मीमतीकथानक (१०८) में किया गया है । यथा
च
अथ सा रुक्मिणी नत्वा सर्वसत्त्वहितं गुरुम् । संयमश्री - समीपे प्रवव्राज मनस्विनी ॥ १२४॥ बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं तपः रुक्मिणी स्त्रीत्वमादाय जातो
देवश्च्युत्वा भुवं प्राप्य तपः निहत्याशेषकर्माणि मोक्षं
शुद्धं विधाय च । दिवि सुरो महान् ॥ १२५ ॥
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कृत्वाऽयमुत्तरम् । यास्यति नीरजाः ॥ १२६ ॥
अनुवाद - " रुक्मिणी ने समस्त प्राणियों के हितकारी गुरु को नमस्कार कर संयमश्री आर्यिका से दीक्षा ग्रहण की। फिर तीर्थंकरगोत्र का बन्ध कर और शुद्ध तप की साधना कर स्वर्ग में महान् देव हुई। वह देव भविष्य में देवपर्याय से च्युत होकर (मनुष्यपर्याय में आयेगा और ) तप द्वारा अशेष कर्मों का विनाश कर मोक्ष प्राप्त करेगा । "
इस प्रकार सम्पूर्ण बृहत्कथाकोश में स्त्रीपर्याय से पुरुषपर्याय प्राप्त करके ही मोक्ष होने का कथन है, किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति का कथन नहीं है। इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षधर ग्रन्थद्वय के लेखक-लेखिका ने क्रमतः शब्द की अनदेखी कर और पूतिगन्धा (रोहिणी) तथा रुक्मिणी के स्त्रीपर्याय को छोड़कर पुरुषपर्याय पाने के कथनों को ताक पर रखकर हल्ला मचाया है कि बृहत्कथाकोश में स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन है, इसलिए वह यापनीयग्रन्थ है। वस्तुतः उपर्युक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं हैं।
यापनीयपक्ष
उक्त ग्रन्थों के लेखक-लेखिका ने दूसरा हेतु यह प्रस्तुत किया है कि बृहत्कथाकोश में रुक्मिणी को तीर्थंकरगोत्र का बन्ध होना बतलाया गया है (देखिए ऊपर 'बद्ध्वा तीर्थङ्करं गोत्रं' श्लोक) । यह दिगम्बरमत के प्रतिकूल और श्वेताम्बर तथा यापनीय मतों के अनुकूल है। इससे सिद्ध है कि बृहत्कथाकोश यापनीयग्रन्थ है। (या. औ. उ. सा./पृ. १५१, जै.ध.या.स./ पृ. १६८) ।
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