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बृहत्कथाकोश / ७३७ यहाँ क्रमतः (क्रम से अर्थात् परम्परया) शब्द का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। यह स्त्री की तद्भवमुक्ति का निषेधक है। जैन कर्मसिद्धान्त और अध्यात्मशास्त्र का प्रत्येक अभ्यासी अच्छी तरह जानता है कि उपर्युक्त क्रियाएँ शुभोपयोग हैं और असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान तक होनेवाले शुभोपयोग से केवल दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों एवं अनन्तानुबन्धी कषाय की चार प्रकृतियों का क्षय होता है। शेष १३८ (चरमशरीरी जीव के नारकायु, तिर्यंचायु और देवायु का सत्त्व नहीं होता) प्रकृतियों का क्षय शुभोपयोग से नहीं होता। उनका यथायोग्य क्षय क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ छद्मस्थ मुनि के एकाग्रचिन्ता-निरोधरूप प्रथम एवं द्वितीय शुक्लध्यान-नामक शुद्धोपयोग से तथा अयोगिकेवली के योगनिरोध से होता है। अयोगकेवली के योगनिरोध को ही चतुर्थ शुक्लध्यान कहा गया है
अंतोमुहुत्तमद्धं चिंतावत्थाणमेयवत्थुम्मि।
छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोधो जिणाणं तु॥ सयोगकेवली और अयोगकेवली ध्रुवोपयोग-परिणत होते हैं, अतः उनके अन्तर्मुहुर्त तक एकाग्रचिन्तानिरोध-स्वभाववाला ध्यान-परिणामरूप शुद्धोपयोग संभव नहीं है, जैसा कि जयधवलाकार ने कहा है-"पूर्ववदत्रापि ध्यानोपचारः प्रवर्तनीयः, परमार्थवृत्त्या एकाग्रचिन्तानिरोध-लक्षणस्य ध्यानपरिणामस्य ध्रुवोपयोगपरिणते केवलिन्यनुपपत्तेः।" (जयधवला / क.पा./भा.१६/अनुच्छेद ३९५/पृ.१८४)। शुभोपयोग इन १३८ कर्मप्रकृतियों के क्षय में असमर्थ है। इसके विपरीत उससे तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से सातवें गुणस्थान तक देवायु का बन्ध होता है (ष.ख.(पु.८४३, ३१-३२४ पृ.६४)। इस प्रकार वह प्रत्यक्षरूप से मोक्ष के विपरीत है। इसीलिए अमितास्रव मुनि पूतिगन्धा से कहते हैं कि इस रोहिणीव्रत से तुम स्वर्ग की देवी भी बन सकती हो।
किन्तु इस शुभोपयोग में इतनी विशेषता होती है कि यदि यह कर्मक्षय के लक्ष्य से किया जाय, भोगों की आकांक्षा से नहीं, तो इससे उस उत्कृष्ट पुण्य का बन्ध होता है, जिससे पहले स्वर्गसुखप्राप्त होता है, पश्चात् मनुष्यपर्याय, पुरुषशरीर आदि परमसमाधि के योग्य सामग्री प्राप्त होती है, जिसके आश्रय से मनुष्य दिगम्बरमुनिदीक्षा ग्रहणकर गुणस्थानक्रम से शुक्लध्यान के द्वारा कर्मक्षय करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है। श्लोक में प्रयुक्त क्रमतः शब्द इसी क्रम या परम्परा को सूचित करता है।
१. क- "निर्विकल्पसमाधिरूपशुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूपसरागचारित्रेण
परिणमति तदा पूर्वमनाकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादकं स्वर्गसुखं
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