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७३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २३
अनुवाद - " इस विधि से जो पुरुष या स्त्री भक्तिपूर्वक रोहिणीव्रत (रोहिणी नक्षत्र में उपवास) का अनुष्ठान करती है, उसे क्रम से केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त होता है । "
दिगम्बरपक्ष
यह बात अशोकरोहिणीकथानक में अमितास्त्रव मुनि द्वारा पूतिगन्धा ( अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली) नाम की स्त्री को अपने पूर्वकृत पाप से मुक्त होने के लिए दिये गये उपदेशक्रम में कही गई है। पूतिगन्धा ने पूर्वभव में क्रोध में आकर एक मुनि को कड़वी तुम्बी का आहार कराया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी थी। इस पाप के फल से वह पहले कुष्ठग्रस्त हुई, फिर नरक गई। वहाँ से निकलकर अनेकभवों में कुक्करी, शूकरी, गर्दभी, मूषिका आदि के रूप में जन्म लेती हुई इस भव में अत्यन्त दुर्गन्धमय शरीवाली स्त्री होती है । वह मुनिवर से पूछती है कि इस पाप से मुक्ति का उपाय क्या है? तब मुनिश्री उपाय बतलाते हैं—
यदि त्वमिच्छसि स्पष्टं सर्वपापविमोचनम् । रोगशोकपरित्यक्तां
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सुरवल्लभतामपि ॥ २१९॥
ततो
रोहिणी नक्षत्रे चोपवासं कुरु द्रुतम् । येन भूयोऽपि दुःखानि न पश्यसि कदाचन ॥ २२० ॥
अनुवाद - " यदि तुम सचमुच में सब पापों से मुक्त होना चाहती हो, यहाँ तक कि रोग, शोक से रहित स्वर्ग की देवी बनना चाहती हो, तो रोहिणी नक्षत्र में शीघ्र ही उपवास करो। उससे तुम्हें कभी भी कोई दुःख नहीं होगा । "
इसके बाद मुनि रोहिणीव्रत के उपवास की विधि बतलाते हैं और उसकी समाप्ति पर वासुपूज्य भगवान् एवं रोहिणी पुस्तक की पूजा तथा चतुर्विध संघ को आहार, ओषधि और वस्त्रादि का यथायोग्य दान ( पात्रानुसार दान) का उपदेश देते हैं। तत्पश्चात् कहते हैं कि जो पुरुष या स्त्री कर्मक्षय के उद्देश्य से ( स्वर्गादिसुख के निदान से नहीं) ऐसा करते हैं, उन्हें क्रमशः केवलज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति होती है
वासुपूज्यजिनेन्द्रस्य पूजा विधीयते
रोहिणीपुस्तकस्य च ।
भक्त्या कर्मक्षयनिमित्ततः ॥ २३३ ॥
पश्चादाहारदानं च भेषजं वसनादिकम् । चतुर्विधस्य सङ्घस्य यथायोग्यं विधीयते ॥ २३४ ॥ एवं करोति यो भक्त्या नरो रामा महीतले । लभते केवलज्ञानं मोक्षं च क्रमतः स्वयम् ॥ २३५ ॥
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