________________
अ०२२/ प्र०१
स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७२१ होने पर उसका गणधर बनेगा। तत्पश्चात् उसकी (सीता के जीव अच्युतेन्द्र की) मुक्ति होगी
अहमिन्द-महासुहु अणुहवें वि। वर-वइजयन्त-सग्गहाँ चवें वि॥ पुणु गणहरु होसहि तासु तुहुँ।
तहिं कालें लहेसहि मोक्ख-सुहु॥ ९०/१०/१-२॥ इन प्रमाणों से सिद्ध है कि स्वयम्भू स्त्रीमुक्तिविरोधी दिगम्बरसम्प्रदाय के थे। पउमचरिउ में स्त्रीमुक्तिनिषेध का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह भी है कि सीता की अग्निपरीक्षा के बाद जब राम उनसे घर चलने का आग्रह करते हैं, तब वे विनम्रतापूर्वक इनकार कर देती हैं और कहती हैं कि अब मैं ऐसा काम करना चाहती हूँ, जिससे मुझे दुबारा स्त्री न बनना पड़े, मैं जन्म, जरा और मरण का अन्त करूँगी।
__ यहाँ विचारणीय है कि सीता का इतना ही कहना पर्याप्त था कि "मैं जन्म, जरा और मरण का अन्त करूँगी।" इससे ही स्त्री-पुरुष आदि सभी पर्यायों से सदा के लिए छुटकारा मिल जाता है। तब उन्होंने अलग से स्त्रीपर्याय से छुटकारा पाने का पौरुष करने की बात क्यों कहीं? इससे ध्वनित होता है कि वे जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए स्त्रीपर्याय से छुटकारा पाना अनिवार्य मानती हैं। अतः उनके द्वारा उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग सिद्ध करता है कि स्वयंभू स्त्रीपर्याय से मुक्ति असम्भव मानते हैं, जो उनके दिगम्बर होने का सूचक है।
परतीर्थिकमुक्ति-निषेध डॉ० एच० सी० भायाणी तथा उनके आधार पर श्रीमती पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी का कथन है कि स्वयंभूकृत पउमचरिउ में परशासन से भी मुक्ति मानी गई है, क्योंकि उसमें अन्य देवताओं के प्रति भी समान भक्तिभाव दर्शाया गया है। अतः स्वयंभू यापनीय थे। (जै.ध. या. स./ पृ.१८४)। इसके उदाहरण में उन्होंने पउमचरिउ का निम्न पद्य उद्धृत किया है
अरहन्तु बुद्ध तुहुँ हरि हरु वि तुहुँ अण्णाण-तमोह-रिउ। तुहुँ सुहुमु णिरजणु परमपउ तुहुँ रवि वम्भु सयम्भु सिउ॥
३/४३ /१९/९॥
३. एवहिँ तिह करेमि पुणु रहुवइ। जिह ण होमि पडिवारी तियमइ॥ ८३/१७/९॥ पउमचरिउ। ४. महु विषय-सुहें हिँ पजत्तउ। छिन्दमि जाइ-जरा-मरणु ॥ ८३/१७/१०॥ पउमचरिउ।
Jain Education Intemational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org