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७२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२२ / प्र०१ उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने यापनीयपरम्परा में भी सोलह (कल्पों) की मान्यता सिद्ध करने के लिए पद्मपुराण के कर्ता रविषेण को यापनीय कहा है। किन्तु पूर्व में सिद्ध किया जा चुका है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर थे। अतः यापनीयपरम्परा में सोलह कल्पों की मान्यता अप्रामाणिक है। यह एकमात्र दिगम्बरमान्यता है। अतः सोलह कल्पों के उल्लेख से स्वयम्भूकृत पउमचरिउ दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध होता है।
स्त्रीमुक्तिनिषेध उक्त ग्रन्थलेखक लिखते हैं-"पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में उसके श्वेताम्बर होने के सन्दर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध है, वह यह कि उसमें कैकयी को मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है-'सिद्धिपयं उत्तमं पत्ता' (पउमचरियं ८३/१२)। इस प्रकार पउमचरियं स्त्रीमुक्ति का समर्थक माना जा सकता है। यह तथ्य 'दिगम्बरपरम्परा के विरोध में जाता है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यापनीय भी स्त्रीमुक्ति तो स्वीकार करते थे, अतः इस दृष्टि से यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं से सम्बद्ध माना जा सकता है।" (जै.ध.या.स./२१७)।
मान्य ग्रन्थलेखक ने इस महत्त्वपूर्ण हेतु से स्वयम्भूकृत पउमचरिउ को असन्दिग्धरूप से दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध कर दिया है, क्योंकि जिस कैकयी को विमलसूरि ने पउमचरियं में मोक्ष की प्राप्ति बताई है, उसे स्वयम्भू ने मोक्ष की प्राप्ति न बता कर मात्र देवत्व का प्राप्त होना बतलाया है। केवलज्ञानी राम से जब सीता का जीव अच्युतेन्द्र पूछता है कि दशरथ की अपराजिता, कैकयी और सुप्रभा रानियों को कौनसी गति प्राप्त हुई, तब वे कहते हैं
अवराइय - केक्कय - सुप्पहउ। कइकइ-सहियउ परिसह-सहउ॥ अण्णउ वि घोर-तव - तत्तियउ।
सव्वउ देवत्तणु पत्तियउ॥ ५/९० /१/७-८॥ अनुवाद-"अपराजिता, कैकयी, सुप्रभा आदि, जिन्होंने कैकयी के साथ परीषह सहन किये, तथा अन्य लोग, जिन्होंने घोर तप तपा, उन सबने देवत्व प्राप्त किया
है।
इतना ही नहीं, केवली भगवान् राम सीता के जीव अच्युतेन्द्र को यह भी बतलाते हैं कि उसे भी मनुष्यभव में पुरुषपर्याय से ही मोक्ष की प्राप्ति होगी। वह पहले चक्रवर्ती बनेगा, पश्चात् वैजयन्त स्वर्ग का देव और तदनन्तर रावण के जीव के तीर्थंकर
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