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७१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
__ अ० २२ / प्र०१ नहीं मिलता है, परन्तु यापनीय सग्रन्थ अवस्था तथा परशासन से भी मुक्ति स्वीकार करते थे और स्वयंभू अधिक उदारचेता थे, अतः इन्हें यापनीय माना जा सकता है।"२
___ और श्रीमती पटोरिया ने आपुलीसंघीय-वाले टिप्पण तथा डॉ० भायाणी के मत का अनुसरण करते हुए पउमचरिउ को यापनीयकृति घोषित किया है तथा अपने मत के समर्थन में कई हेतु प्रस्तुत किये हैं। उन्हीं को अपने ग्रन्थ में उद्धृत करते हुए डॉ. सागरमल जी ने भी उसे यापनीयपरम्परा का ही ग्रन्थ बतलाया है।
श्रीमती पटोरिया ने पउमचरिउ को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए उसमें यापनीयमत के किसी भी मौलिक सिद्धान्त का उल्लेख होना नहीं बतलाया, केवल ऐसी बातों का उल्लेख होना बतलाया है, जो दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं, और उन्हें ही यापनीयसिद्धान्त मान लिया है, जबकि उनके यापनीयसिद्धान्त होने का कोई प्रमाण नहीं है। यहाँ मैं पउमचरिउ में उपलब्ध उन विशेषताओं का वर्णन कर रहा हूँ, जो केवल दिगम्बरग्रन्थों में मिलती हैं, श्वेताम्बरीय या यापनीय गन्थों में नहीं। उनसे सिद्ध हो जाता है कि पउमचरिउ दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है, श्वेताम्बर या यापनीय परम्परा का नहीं।
कथावतार की दिगम्बरीय पद्धति पूर्व में रविषेणकृत पद्मपुराण नामक उन्नीसवें अध्याय में बतलाया गया है कि दिगम्बरीय पुराणों में राजा श्रेणिक के प्रश्न करने पर गौतम गणधर कथा का वर्णन करते हैं, जब कि श्वेताम्बरीय पुराणों में जम्बूस्वामी को सम्बोधित करते हुए सुधर्मा स्वामी के द्वारा कथा सुनाई जाती है। इस विशेषता को सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वान् स्वीकार करते हैं। स्वयम्भूकृत पउमचरिउ (१/१/९/१-९) में दिगम्बर-पद्धति से ही कथावतार होता है। यह उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का प्रमाण है।
सोलह स्वप्नों का वर्णन जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय ग्रन्थ के लेखक लिखते हैं-“पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में मरुदेवी और पद्मावती, इन तीर्थंकर-माताओं के द्वारा १४ स्वप्न देखने का उल्लेख है। यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है। इस प्रकार इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर-परम्परा से सम्बद्ध होने के सन्दर्भ में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है।" (पृष्ठ २१५)।
२. डॉ. एच. सी. भायाणी-कृत 'पउमचरिउ' की भूमिका/पृ.१३,५ (या.औ.उ.सा./पृ. १५४)।
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