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अ०२२/प्र०१
स्वयम्भूकृत पउमचरिउ / ७१९ इन वचनों से लेखक महोदय स्वयं सिद्ध कर देते हैं कि स्वयंभूकृत पउमचरिउ दिगम्बरग्रन्थ है, क्योंकि उसमें मरुदेवी के द्वारा निम्नलिखित सोलह स्वप्न देखे जाने
का वर्णन है-१. मद से गीले गण्डस्थलवाला मत्त गज, २. कमलसमूह को उखाड़ता हुआ वृषभ, ३. विशाल नेत्रोंवाला सिंह, ४. नवकमलों पर आरूढ़ लक्ष्मी, ५. उत्कट गन्धवाली पुष्पमाला, ६. मनोहर पूर्णचन्द्र, ७. प्रचण्ड किरणोंवाला सूर्य, ८. परिभ्रमण करता हुआ मीनयुगल, ९.जल से भरा हुआ मंगल-कलश, १०.कमलों से आच्छन्न सरोवर, ११. गर्जना करता हुआ समुद्र, १२. शोभायमान सिंहासन, १३. घण्टियों से मुखरित विमान, १४. अत्यन्त धवल नागालय, १५. चमकता हुआ मणिसमूह, १६. प्रज्वलित अग्नि। (प.च./१/१/१५/१-८ पृ.२२)।
लेखक महोदय ने लिखा है कि "यापनीयपरम्परा भी सोलह स्वप्न मानती है।" किन्तु ऐसा कोई यापनीयग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, जिसमें सोलह स्वप्नों का वर्णन हो। उन्होंने दिगम्बरग्रन्थों को ही यापनीयग्रन्थ मानकर ऐसी धारणा बना ली है। सत्य इसके विपरीत है। यापनीयसंघ श्वेताम्बर-आगमों को ही प्रमाण मानता था, अतः उसके द्वारा चौदह स्वप्नों का माना जाना ही युक्तिसंगत सिद्ध होता है। इसलिए सोलह स्वप्नों की मान्यता एकमात्र दिगम्बरीय मान्यता है। फलस्वरूप पउमचरिउ में सोलह स्वप्नों का उल्लेख उसके दिगम्बरग्रन्थ होने का प्रबल साक्ष्य है।
सोलह कल्पों की मान्यता उक्त ग्रन्थलेखक महोदय का कथन है कि "पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में १२ देवलोकों का उल्लेख है, जो कि श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यतानुरूप है, जब कि यापनीय रविषेण और दिगम्बरपरम्परा के अन्य आचार्य देवलोकों की संख्या १६ मानते हैं। अतः इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण माना जा सकता है।" (जै.ध.या.स./पृ.२१६-२१७)।
इस हेतु के द्वारा भी लेखक महोदय ने स्वयंभूकृत पउमचरिउ को दिगम्बरग्रन्थ सिद्ध किया है, क्योंकि उसमें भी सोलह कल्प ही माने गये हैं। सीता सोलहवें (अच्युत) स्वर्ग में इन्द्र हो गयी थीं। वह इन्द्र वहाँ से नरक में आकर लक्ष्मण और रावण को सम्बोधित करता है और दया से अभिभूत होकर उनसे कहता है-"चलो, मैं तुम दोनों को शीघ्र ही अच्युत नामक सोलहवें स्वर्ग में ले चलता हूँ"
विण्णि वि जण सहसा सोलहमउ। सग्गु पराणमि अच्चुअ-णामउ॥ ५/८९/११/४॥
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