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७२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २२ / प्र०१ स्वीकार करते थे और स्वयंभू अपेक्षाकृत अधिक उदारचेता थे, अतः इन्हें यापनीय माना जा सकता है।" (या.औ.उ.सा./पृ. १५४, जै. ध.या.स./पृ. १८१)।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि डॉ० भायाणी ने यापनीयों को सग्रन्थ अवस्था और परशासन से मुक्ति स्वीकार करने वाला कहा है, स्वयंभू को नहीं। स्वयंभू को केवल अपेक्षाकृत अधिक उदारचेता कहा है और केवल उदारचेता होने मात्र से यह कल्पना कर ली गई कि वे भी सग्रन्थ अवस्था और परशासन से मुक्ति स्वीकार करते थे, अतः यापनीयसम्प्रदाय के थे।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उक्त विद्वानों में से किसी ने भी पउमचरिउ से सग्रन्थमुक्ति के उल्लेख का एक भी उदाहरण नहीं दिया। केवल डॉ० भायाणी के 'उदारचेता' वचन से ही स्वयंभू को सग्रन्थमुक्ति का समर्थक मान लिया। उदाहरण देना संभव भी नहीं था, क्योंकि ग्रन्थ में सग्रन्थमुक्ति का उदाहरण है ही नहीं। पुरुषों के द्वारा सर्वत्र निर्ग्रन्थदीक्षा लिये जाने का ही वर्णन है और निर्ग्रन्थ का अर्थ वस्त्ररहित ही बतलाया गया है।
चार ज्ञान के धारक एक महामुनि, तडित्केश के पूर्वभव का वर्णन करते हुए उससे कहते हैं कि जब तुम साधु थे, तब यह उदधिकुमार देव, जो पूर्वभव में धनुर्धारी था, तुम्हारे पास आया और तुम्हें निर्ग्रन्थ देखकर उसने तुम्हारा उपहास किया-"णिग्गन्थु णिऍवि उवहासु कउ।" (प.च/१/६/१५/४)। यहाँ उपहास किये जाने से स्पष्ट होता है कि 'निर्ग्रन्थ' शब्द नग्नता का सूचक है। तथा राम जब निर्ग्रन्थ-दीक्षा ले लेते हैं
और तप कर रहे होते हैं, तब सीता का जीव अच्युतेन्द्र अच्युत स्वर्ग से आकर राम के मुनित्व की परीक्षा लेते हुए उनसे मुनित्व छोड़कर अपने साथ रमण करने की याचना करता है और जब राम ध्यान में अडिग रहते हैं तब कहता है
णिच्चलु पाहाणु व किं अच्छहि। सवडम्मुहु स-विआरु णियच्छहि ॥ लइउ पिसाएं जेम अलज्जित।। कालु म खेवहि वत्थ-विवजउ॥
पउमचरिउ/५/८९/३/६-७। अनुवाद-"पत्थर की तरह अडिग क्यों खड़े हो ? प्रेमभरी दृष्टि से मेरी ओर देखो। लगता है तुम्हें भूत लग गया है, इसीलिए इतने निर्लज दिखाई दे रहे हो, वस्वविहीन होकर अपना समय व्यर्थ गवा रहे हो।"
इन वचनों से और भी स्पष्ट हो जाता है कि पउमचरिउ में निर्ग्रन्थ शब्द वस्त्रविहीन (नग्न) साधु का वाचक है तथा राम आदि सभी पुरुषों ने दिगम्बरदीक्षा ग्रहण की
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