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७०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२१ / प्र० २ जी प्रेमी ने यह सम्भावना व्यक्त की है कि ये अंश यापनीयसाहित्य के दिगम्बरसाहित्य में अन्तर्भूत होने के बाद प्रक्षिप्त हुए हैं।" (जै.ध.या.स./पृ.६२)।
यह सूचना भी सर्वथा गलत है। पं० नाथूराम जी प्रेमी ने ऐसी संभावना कहीं पर भी व्यक्त नहीं की। इसीलिए उक्त ग्रन्थ के लेखक ने प्रेमी जी के किसी ग्रन्थ का कोई सन्दर्भ भी पाद-टिप्पणी में नहीं दिया है। केवल श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने 'यापनीय और उनका साहित्य' ग्रन्थ (पृष्ठ १५१ ) में ऐसा मन्तव्य प्रकट किया है, किन्तु उन्होंने प्रेमी जी का नाम नहीं लिया ।
इससे स्पष्ट है कि प्रेमी जी ने हरिवंशपुराण की उपर्युक्त (प्रकरण १ / शी. ६ में वर्णित) दिगम्बराचार्यों की सूची को प्रक्षिप्त नहीं माना है। पूर्व में उनके शब्द उद्धृत किये जा चुके हैं, जिनमें उन्होंने हरिवंशपुराण और बृहत्कथाकोश दोनों को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ घोषित किया है। यदि वे उक्त आचार्यसूची को प्रक्षिप्त मानते, तो उसे दिगम्बरग्रन्थ कदापि न कहते ।
हाँ, श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया ने उसे प्रक्षिप्त माना है। किन्तु उनका कथन तब युक्तिसंगत होता, जब हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति आदि यापनीय-मान्यताओं का निषेध न किया गया होता, अपितु इनका प्रतिपादन होता । ऐसा होने पर वह यापनीयग्रन्थ होता और तब यापनीयसिद्धान्तों से मेल न खाने के कारण दिगम्बराचार्यों की उक्त सूची निश्चित ही प्रक्षिप्त मानी जाती । किन्तु पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया गया है कि हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि सभी यापनीय-मान्यताओं का निषेध किया गया है, जिससे वह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है । अतः दिगम्बराचार्यों की सूची उसके अनुरूप होने के कारण प्रक्षिप्त नहीं है, अपितु ग्रन्थकार द्वारा ही निबद्ध की गयी है ।
यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण २३ के कथनानुसार राजा सिद्धार्थ के भगिनीपति राजा जितशत्रु कुमार महावीर के साथ अपनी कन्या यशोदा का विवाह करना चाहते थे। इससे भी हरिवंशपुराणकार का यापनीय होना सिद्ध होता है । (या. औ. उ. सा. / १४९) ।
दिगम्बरपक्ष
हरिवंशपुराणकार ने राजा जितशत्रु के मन की इच्छा सूचित कर अपनी ओर से कहा है कि "परन्तु कुमार महावीर तप के लिए चले गये और केवलज्ञान प्राप्त
२३. यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीरविवाहमङ्गलम् ।
अनेक-कन्या-परिवारयारुहत्समीक्षितुं तुङ्ग- मनोरथं तदा ॥ ६६ / ८ ॥ हरिवंशपुराण ।
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