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अ० २१ / प्र० २
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यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण के उल्लेखानुसार नन्दिषेण मुनि रुग्णमुनि का वेश धारण करके आये हुए देवों को उनका मनोवांछित भोजन लाकर देते हैं। यह आचरण दिगम्बर मुनि के अनुकूल न होकर श्वेताम्बर मुनि के अनुकूल है । अतः श्वेताम्बरपरम्परा को मानना हरिवंशपुराणकार के यापनीय होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। (या. औ. उ. सा. / पृ. १५०)।
दिगम्बरपक्ष
हरिवंशपुराण / ७११
हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्तिनिषेध, सवस्त्रमुक्तिनिषेध, गृहस्थमुक्तिनिषेध, परतीर्थिकमुक्ति-निषेध और केवलिभुक्तिनिषेध जैसे यापनीयमत- विरोधी प्रबल प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है । उसमें एक मुनि के द्वारा रुग्णमुनि के लिए आहार लाकर देने का वर्णन है। इससे सिद्ध है कि किसी मुनि के द्वारा रुग्ण मुनि के लिए आहार लाकर देने का आचरण श्वेताम्बर या यापनीय मत का असाधारण धर्म नहीं है। अतः किसी ग्रन्थ में उसका वर्णन ग्रन्थ के यापनीय होने का हेतु नहीं हो सकता । फलस्वरूप हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु हेत्वाभास है। दिगम्बरग्रन्थ भगवती - आराधना में भी क्षपक के लिए चार मुनियों के द्वारा आहार व्यवस्था कराये जाने का नियम उपदिष्ट किया गया है, जो परिस्थितिविशेष में दिगम्बरसिद्धान्त के प्रतिकूल नहीं है। इसका विवेचन भगवती आराधना नामक त्रयोदश अध्याय में किया जा चुका है। तथा नन्दिषेण मुनि ऋद्धिधारी थे, अतः उनके लिए पात्र ग्रहण किये बिना इच्छित व्यंजन, रुग्ण मुनि के हाथों में उपस्थित कर देना असंभव भी नहीं था । २६
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यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण (४२ / १२-१३, २२) में नारद को दो स्थानों पर चरमशरीरी कहा गया है, जब कि तिलोयपण्णत्ती और त्रिलोकसार नारद को नरकगामी मानते हैं। नारद को चरमशरीरी अथवा स्वर्गगामी मानना श्वेताम्बर - आगमिक - परम्परा है। चूँकि यापनीय श्वेताम्बर - आगमों को स्वीकार करते थे, अतः हरिवंशपुराण यापनीयग्रन्थ सिद्ध होता है। (या.औ.उ.सा./पृ.१५०) ।
२६. ननन्द नन्दिषेणाख्यस्तपसोत्पन्नलब्धिभिः ।
एकादशाङ्गभृत्साधुः सोढाशेषपरीषहः॥ १८ / १३५ ॥ हरिवंशपुराण । महालब्धिमतस्तस्य वैयावृत्योपयोगि यत् ।
वस्तु तच्चिन्तितं हस्ते भेषजाद्याशु जायते ॥ १८ / १३८ ॥ हरिवंशपुराण ।
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