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अ० २१ / प्र०२
हरिवंशपुराण / ७१३ क्योंकि उसमें यापनीयों की वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि समस्त मौलिक मान्यताओं का निषेध है।
तथा उक्त मिथ्यात्व के प्रचार की प्रेरणा निश्चितरूप से दिगम्बरमत के प्रतिकूल है, तथापि उसके उल्लेख से हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने का खण्डन नहीं होता, क्योंकि उसमें सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति आदि का निषेध है, जिसकी उपपत्ति हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने पर ही होती है, अन्यथा नहीं।
इस स्थिति में उक्त मिथ्यात्व के प्रचार का उल्लेख हरिवंशपुराण को न तो यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने में समर्थ है, न उसके दिगम्बरग्रन्थ होने को असिद्ध करने में। उक्त उल्लेख की उपपत्ति एक ही मान्यता से हो सकती है, वह यह कि हरिवंशपुराण के कर्ता दिगम्बर जिनसेन ने तत्कालीन परिस्थितियों-वश जैनेतर मान्यताओं को अपने ग्रन्थ में स्थान दिया है, जैसे यक्ष-यक्षी की पूजा, पंचामृत-अभिषेक आदि को। इस प्रकार यापनीयग्रन्थ का असाधारण धर्म न होने से मिथ्यात्वप्रचार की प्रेरणा का उल्लेखरूप हेतु हरिवंशपुराणकार के यापनीय होने का साधक नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है।
उपर्युक्त प्रमाणों के द्वारा यापनीयग्रन्थ-पोषक हेतुओं के असत्य या हेत्वाभास सिद्ध हो जाने से तथा दिगम्बर ग्रन्थ-साधक हेतुओं के उपलब्ध होने से यह असंदिग्धरूपेण सिद्ध हो जाता है कि हरिवंशपुराण दिगम्बर-परम्परा का ग्रन्थ है।
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