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७०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
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न द्रव्याद्, द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता । निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा सर्वार्थसिद्धिकार ने उपर्युक्त व्याख्या में स्पष्ट कर दिया है कि सग्रन्थलिंग से भूतपूर्वनय की अपेक्षा (निर्ग्रन्थलिंग से पूर्ववर्ती लिंग को ग्रहण करनेवाले नय की अपेक्षा) सिद्धि होती है, प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा (सिद्धि के साक्षात् साधक लिंग को ग्रहण करनेवाले नय की अपेक्षा) नहीं होती। इस प्रकार सग्रन्थलिंग से मुक्ति होती भी है और नहीं भी ।
यही बात हरिवंशपुराणकार ने 'सग्रन्थेनाथवा न वा' इन शब्दों में कही है अर्थात् सग्रन्थलिंग से भूतपूर्वनय की अपेक्षा सिद्धि होती है प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा नहीं होती ।
अ० २१ / प्र० २
यहाँ हरिवंशपुराणकार ने प्रत्युत्पन्ननय एवं भूतपूर्वनय शब्दों का प्रयोग नहीं किया, तथापि प्रस्तुत प्रकरण में सर्वार्थसिद्धि के समान हरिवंशपुराण में भी उक्त दोनों नयों से प्रतिपादन चल रहा है। 'सिद्धि होती भी है, और नहीं भी' इन परस्परविरोधी कथनों की संगति इन दोनों नयों से विचार करने पर ही बैठती है । इसलिए यहाँ ये दोनों नय अध्याहरणीय हैं, जैसे कि हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोकों में अध्याहरणीय हैं—
६४ / ९४ ॥
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अनुवाद- 'चारित्रानुयोग की दृष्टि से विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राहिनय की अपेक्षा एक यथाख्यातचारित्र से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राहिनय की अपेक्षा चार अथवा पाँच चारित्रों से होती है।"
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सिद्धिरव्यपदेशेन नयादेकेन वा पुनः ।
चतुर्भिः पञ्चभिर्वापि चारित्रैरुपजायते ॥ ६४/९६॥
सिद्धिर्ज्ञानविशेषैः स्यादेकद्वित्रिचतुष्ककैः ॥ ६४/९८ ॥
अनुवाद - " ज्ञानानुयोग से विचार करने पर प्रत्युत्पन्नग्राहिनय की अपेक्षा एक केवलज्ञान से ही सिद्धि होती है और भूतार्थग्राहिनय की अपेक्षा दो (मति, श्रुत), तीन (मति, श्रुत, अवधि) और चार (मति, श्रुत अवधि, मन:पर्यय) ज्ञानों से सिद्धि होती है । "
जैसे यहाँ भूतार्थग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक चारित्र और ज्ञान से पूर्ववर्ती चारित्र और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना आदि चारित्रों से तथा मति, श्रुत आदि क्षायोपशमिक ज्ञानों से सिद्धि बतलायी गयी है और अर्थशक्ति के द्वारा अनुक्तरूप से प्रत्युत्पन्न - ग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक चारित्र और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा उक्त चारित्रों और ज्ञानों से सिद्धि
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