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अ० २१ / प्र० २
हरिवंशपुराण / ७०५
२.‘“प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषेणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अन्त्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति ।" (स.सि./ १० /९/९३७ /पृ.३७३) ।
अनुवाद – “प्रत्युत्पन्ननय की अपेक्षा एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । भूतप्रज्ञापननय ( भूतग्राहिनय) की दृष्टि से जन्म की अपेक्षा सामान्यतः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है। विशेषरूप से अवसर्पिणी में सुषमा- दुःषमा के अन्तभाग में और दुःषमा - सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । "
इन्हीं नयों से इसी विषय का प्ररूपण हरिवंशपुराण के कर्त्ता ने नीचे दिये श्लोकों में भी किया है
एकस्मिन्समये
कालात्प्रत्युत्पन्ननयेक्षया ।
भूतग्राहिनयेक्षातो जन्मतोऽप्यविशेषतः ॥ ६४ / ९० ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योर्जातः सिद्धयति जन्मवान् ।
विशेषेणावसर्पिण्यां तृतीयान्ततुरीययोः ॥ ६४/९१॥
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि प्रत्युत्पन्ननय और भूतग्राही नय की अपेक्षा जैसा कथन सर्वार्थसिद्धिकार ने किया है, वैसा ही उन नयों की अपेक्षा हरिवंशपुराणकार ने भी किया है । तथा
३. " लिङ्गेन केन सिद्धि : ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो, न द्रव्यतः। द्रव्यतः पुल्लिङ्गेनैव अथवा निर्ग्रन्थलिङ्गेन । सग्रन्थलिङ्गेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया ।" (स.सि./१०/९/पृ.३७४) ।
अनुवाद - "लिंग की अपेक्षा किस लिंग से सिद्धि होती है? लिंग की अपेक्षा अवेद से सिद्धि होती है अथवा भावलिंग की अपेक्षा तीनों वेदों से होती है, द्रव्यलिंग की अपेक्षा तीनों वेदों से नहीं होती । द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुंल्लिङ्ग से ही सिद्धि होती है अथवा निर्ग्रन्थलिंग से सिद्धि होती है । अथवा भूतपूर्वनय की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से होती है। "
सर्वार्थसिद्धिकार की इस टीका का अनुसरण हरिवंशपुराणकार ने निम्नलिखित श्लोकों में किया है—
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सिद्धिः सिद्धिगतौ ज्ञेया सुमनुष्यगतौ यथा । अवेदत्वेन लिङ्गेन भावतस्तु
त्रिवेदतः ॥ ६४ / ९३॥
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