________________
५८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ नहीं हुआ है, तो वह अधिक समय बाद का भी नहीं है, क्योंकि विक्रम की १०वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य सिद्धर्षि की टीका में यह मूलरूप से परिगृहीत है, जिससे यह मालूम होता है कि उन्हें अपने समय में न्यायावतार की जो प्रतियाँ उपलब्ध थीं, उनमें यह पद्य मूल का अङ्ग बना हुआ था। और जब तक सिद्धर्षि से पूर्व की किसी प्राचीन प्रति में उक्त पद्य अनुपलब्ध न हो, तब तक प्रो० साहब तो अपनी विचार-पद्धति१२ के अनुसार यह कह ही नहीं सकते कि वह ग्रन्थ का अङ्ग नहीं, ग्रन्थकार के द्वारा योजित नहीं हुआ अथवा ग्रन्थकार से कुछ अधिक समय बाद उसमें प्रविष्ट या प्रक्षिप्त हुआ है। चुनाँचे प्रो० साहब ने वैसा कुछ कहा भी नहीं और न उस पद्य के न्यायावतार में उद्धृत होने की बात का स्पष्ट शब्दों में कोई युक्तिपुरस्सर विरोध ही प्रस्तुत किया है, वे उस पर एकदम मौन हो रहे हैं।" (जै.सा.इ.वि.प्र/ खं.१/पृ.४५६-४५९)।
अतः ऐसे प्रबल साहित्यिक उल्लेखों की मौजूदगी में रत्नकरण्ड को विक्रम की ११वीं शताब्दी की रचना अथवा रत्नमालाकार के गुरु की कृति नहीं बतलाया जा सकता और न इस कल्पित समय के आधार पर उसका आप्तमीमांसा से भिन्नकर्तृत्व ही प्रतिपादित किया जा सकता है। यदि प्रो० साहब साहित्य के उल्लेखादि को कोई महत्त्व न देकर ग्रन्थ के नामोल्लेख को ही उसका उल्लेख समझते हों, तो वे आप्तमीमांसा को कुन्दकुन्दाचार्य से पूर्व की तो क्या, अकलङ्क के समय से पूर्व की अथवा कुछ अधिक पूर्व की भी नहीं कह सकेंगे, क्योंकि अकलङ्क से पूर्व के साहित्य में उसका नामोल्लेख नहीं मिल रहा है। ऐसी हालत में प्रो० साहब की दूसरी आपत्ति का कोई महत्त्व नहीं रहता, वह भी समुचित नहीं कही जा सकती और न उसके द्वारा उनका अभिमत ही सिद्ध किया जा सकता है।
"III. रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालाल जी की जो तीसरी दलील (युक्ति) है, उसका सार यह है कि 'वादिराजसूरि के पार्श्वनाथचरित में आप्तमीमांसा को तो 'देवागम' नाम से उल्लेख करते हुए स्वामिकृत कहा गया है और रत्नकरण्ड को स्वामिकृत न कहकर योगीन्द्रकृत बतलाया है। 'स्वामी' का अभिप्राय स्वामी समन्तभद्र से और 'योगीन्द्र' का अभिप्राय उस नाम
११२. प्रो० साहब की इस विचारपद्धति का दर्शन उस पत्र पर से भले प्रकार हो सकता
है, जिसे उन्होंने मेरे उस पत्र के उत्तर में लिखा था, जिसमें उनसे रत्नकरण्ड के उन सात पद्यों की बावत सयुक्तिक राय मांगी गई थी, जिन्हें मैंने रत्नकरण्ड की प्रस्तावना में सन्दिग्ध करार दिया था और जिस पत्र को उन्होंने मेरे पत्र-सहित अपने पिछले लेख (अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १/ पृ. १२) में प्रकाशित किया है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org