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६७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २० / प्र० २
समयसार की यह गाथा श्वेताम्बर - प्रकीर्णक ग्रन्थों में नहीं है, तथापि वरांच में इस प्रकार रूपान्तरित की गई है—
जीवादयो मोक्षपदावसाना भूतार्थतो येऽधिगताः पदार्थाः । नयप्रमाणानुगतक्रमेण सम्यक्त्वसंज्ञामिह ते
इससे सिद्ध है कि जिन्हें यापनीयपक्षी ग्रन्थलेखक ने श्वेताम्बरग्रन्थों की गाथाएँ मान लिया है, वे कुन्दकुन्द के ग्रन्थों एवं दिगम्बरग्रन्थ भगवती - आराधना तथा मूलाचार की गाथाएँ हैं। वहीं से वे प्रकीर्णकों में पहुँची हैं और वे ही वरांगचरित में रूपान्तरित की गई हैं। इस प्रकार वे श्वेताम्बर - प्रकीर्णक ग्रन्थों की गाथाएँ नहीं हैं, अतः यह हेतु भी असत्य
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तथा
लभन्ते ॥ ३१/६८॥
क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धिं प्रयच्छति ।
परिपश्यन्यथा पङ्गुर्मुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥ २६ /९९॥
वरांगचरित का यह श्लोक भारतीय शिष्टसाहित्य और लोकसाहित्य में प्रसिद्ध अन्ध और पंगु की कथा पर आश्रित है, उसी के आधार पर आवश्यकनिर्युक्ति की 'हयं नाणं कियाहीणं' (१०१) तथा 'संजोगसिद्धीइ फलं वयंति' ये गाथाएँ रची गयी हैं और उसी (भारतीय शिष्ट- साहित्य और लोकसाहित्य) से प्रेरणा लेकर दिगम्बरसाहित्य में निम्नश्लोक की रचना हुई है
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ज्ञानं पङ्गौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृद्द्द्वयम् । ततो ज्ञानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम्॥
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तथा वैदिकसाहित्य की ईश्वरकृष्णरचित सांख्यकारिका में इस लोककथा का उपयोग इस रूप में किया गया है—
पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य ।
पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥ २१ ॥
अतः वरांगचरित के उक्त प्रकार के श्लोकों को आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं का संस्कृत रूपान्तरण मानना प्रमाणबाधित और युक्तिबाधित है। अतः जटासिंहनन्दी को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है।
८. यशस्तिलकचम्पू / उत्तरार्ध / पृष्ठ २७१ । यशस्तिलकचम्पू का यह श्लोक तत्त्वार्थवृत्ति (प्रथम अध्याय के प्रथमसूत्र की प्रस्तावना) में पृष्ठ ३ पर उद्धृत किया गया है।
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