________________
अ० २१ / प्र० १
हरिवंशपुराण / ६९१
यहाँ ध्यान देने योग्य है कि हरिवंशपुराण के कर्त्ता ने राजकुल में उत्पन्न राजाओं के लिए आपवादिक सवस्त्रलिंग का विधान नहीं किया, न ही क्षुधादिपरीषहों से पीड़ित होने पर आपवादिक सवस्त्रलिंग के औचित्य का प्रतिपादन किया है, न ही उनके तापस और परिव्राजक बन जाने पर उन्हें मोक्ष का पात्र बतलाया है, क्योंकि तापसों को उन्होंने केवल भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जन्म लेनेवाला तथा परिव्राजकों को ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न होनेवाला कहा है। हरिवंशपुराण में सवस्त्रमुक्ति-निषेध का यह तीसरा प्रमाण है । सवस्त्रमुक्ति के निषेध से गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का भी निषेध हो जाता है। यह भी हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने का अकाट्य प्रमाण है।
३
परतीर्थिकमुक्ति का निषेध
यद्यपि सवस्त्रमुक्तिनिषेध से ही परतीर्थिक (अन्यलिंगी) की भी मुक्ति का निषेध हो जाता है, तथापि उसके निषेध के अन्य प्रमाण भी हरिवंशपुराण में मिलते हैं। जैसा कि पूर्व में अनेकत्र स्पष्ट किया जा चुका है, जैनेतर मान्यताओं और जैनेतरलिंग (अनग्नत्व) के अवलम्बन द्वारा भी मुक्ति प्राप्त होने की मान्यता परतीर्थिकमुक्ति की मान्यता कहलाती है । यह भी यापनीयों की मौलिक मान्यताओं में से अन्यतम है। किन्तु हरिवंशपुराण में इसका निषेध किया गया है। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं—
१. हरिवंशपुराण में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन (जिनोपदिष्ट तत्त्वों में श्रद्धा ) होने तथा सम्यक्चारित्र (नग्नत्व आदि २८ मूलगुणों एवं तप आदि उत्तरगुणों) के पालन से ही कर्मों का क्षय होता है । "
२. निर्ग्रन्थ (अचेलक) ही संयत गुणस्थान को प्राप्त होते हैं । "
३. अचेलत्व आदि २८ मूलगुणों और अन्य उत्तरगुणों को धारण करने वाला ही मुनि कहलाता है और मुनि ही मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है। (२/११७१३१/पृ.२१-२२) ।
७. आज्योतिर्लोकमुत्पादस्तापसानां ब्रह्मलोकावधिर्ज्ञेयः ८. पूर्वमेवौपशमिकं
क्षायिकं तैः समुत्पाद्य तथा चारित्रमोहस्य
चारित्रं प्रतिपद्यामी क्षयं कुर्वन्ति कर्मणाम् ॥ ३ / १४५ ॥ हरिवंशपुराण ।
९. नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः
रूपभेदविवर्जिताः॥ ३/८४ ॥ हरिवंशपुराण |
Jain Education International
तपस्विनाम् ।
परिव्राजकयोगिनाम्॥ ६ / १०३ ॥ हरिवंशपुराण | क्षायोपशमिकं क्रमात् ।
सम्यक्त्वमनुभूयते ॥ ३/१४४॥ हरिवंशपुराण। क्षयोपशमलब्धितः ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org