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अ० २१ / प्र०१
हरिवंशपुराण / ६९३ हरिवंशपुराणकार ने यह भी कहा है कि सयोगकेवली और अयोगकेवली को क्षायिकलब्धियों की प्राप्ति हो जाने से अनन्त आत्मसुख की अनुभूति होती है। उनका सुख इन्द्रियविषयों से उत्पन्न नहीं होता। यथा
तत्र केवलिनां सौख्यं सयोगानामयोगिनाम्।
लब्धक्षायिकलब्धीनामनन्तं नेन्द्रियार्थजम्॥ ३/८६॥ इन शब्दों के द्वारा भी केवली भगवान् को क्षुधा-तृषा आदि की पीड़ाओं से रहित बतलाया गया है।
___ यापनीयों की इस प्रमुख मान्यता के निषेध से स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन यापनीय-आचार्य नहीं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं।
यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त १. यापनीयमत में वस्त्रपात्रादि-बाह्यपरिग्रह का त्याग आवश्यक नहीं माना गया है, क्योंकि उनके अनुसार सवस्त्र साधुओं, स्त्रियों, गृहस्थों और अन्यलिंगियों की भी मुक्ति हो सकती है। इन सबके पास वस्त्रपात्रादि-परिग्रह होता है। किन्तु हरिवंशपुराण में मुक्ति के लिए अभ्यन्तरपरिग्रह के साथ वस्त्रपात्रादि-बाह्यपरिग्रह का भी त्याग अनिवार्य बतलाया गया है। यथा
बाह्याभ्यन्तरवर्तिभ्यः सर्वेभ्यो विरतिर्यतः।
स्वपरिग्रहदोषेभ्यः पञ्चमं तु महाव्रतम्॥ २/१२१॥ चतुष्कषाया नव नोकषाया मिथ्यात्वमेते द्विचतुःपदे च। क्षेत्रं च धान्यं च हि कुप्यभाण्डे धनं च यानं शयनासनं च॥ ३४ /१०४॥ अन्तर्बहिर्भेदपरिग्रहास्ते रन्धैश्चतुर्विंशतिराहतास्तु।
ते द्वे शते षोडशसंयुते स्युर्महाव्रते स्यादुपवासभेदाः॥ ३४/१०५॥ २. यापनीयमत में कल्पों की संख्या केवल १२ मानी गयी है, जब कि दिगम्बरमत में १२ और १६ दोनों। हरिवंशपुराण (३ / १५२-१५५) में १६ कल्पों का वर्णन है, जो यापनीयमत के विरुद्ध है। इसी प्रकार यापनीयमत अनुदिश नामक नौ स्वर्ग स्वीकार नहीं करता, जबकि हरिवंशपुराण में स्वीकार किये गये हैं। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध है।
११. नवग्रैवेयकावासा नवानुदिशवासिनः।
कल्पातीतास्तथा ज्ञेयाः पञ्चानुत्तरवासिनः॥ ३/१५०॥ हरिवंशपुराण।
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