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६९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२१/प्र०१ ४. जिनलिंगरहित साधु सहस्रारनामक बारहवें स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकता।
हरिवंशपुराण में प्रतिपादित इन सिद्धान्तों से स्पष्ट होता है कि परतीर्थिक पुरुष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से रहित होते हैं। उनमें अचेलत्व आदि २८ मूलगुणों और अन्य उत्तरगुणों का अभाव होता है, अतः वे संयत गुणस्थान को प्राप्त नहीं हो सकते। इसलिए उनका कर्मक्षय संभव नहीं है। हरिवंशपुराण में प्रतिपादित इस यापनीयमतविरोधी सिद्धान्त से सिद्ध है कि यह यापनीयमत का नहीं, अपितु दिगम्बरमत का ग्रन्थ है।
केवलिभुक्तिनिषेध केवलिभुक्ति भी यापनीयों की मूलभूत मान्यताओं में से एक है। किन्तु हरिवंशपुराण में इसका निषेध किया गया है। केवलज्ञान के दश अतिशयों का वर्णन करते हुए जिनसेन कहते हैं
निमेषोन्मेष-विगम-प्रशान्तायत-लोचनम्। सुव्यवस्थितसुस्निग्धनखकेशोपशोभितम् ॥ ३/१२॥ त्यक्तभुक्तिजरातीतमच्छायं छाययोर्जितम्।
एकतो मुखमप्यच्छचतुर्मुखमनोहरम्॥३/१३॥ इन दश अतिशयों में त्यक्तभुक्ति शब्द से केवली भगवान् के कवलाहारी होने का निषेध किया गया है।
केवली भगवान् के प्रभाव से समवशरण में स्थित अन्यजीवों को भी भूख-प्यास आदि की पीड़ा नहीं होती, तब स्वयं को होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस तथ्य की अभिव्यक्ति हरिवंशपुराण के कर्ता ने निम्नलिखित शब्दों में की है
न मोहो न मयद्वेषौ नोत्कण्ठारतिमत्सराः। अस्यां भद्रप्रभावेण जम्भाजृम्भा न संसदि॥ ५७/१८१॥ निद्रा-तन्द्रा-परिक्लेश-क्षुत्पिपासा-सुखानि न। नास्त्यन्यच्चाशिवं सर्वमहरेव च सर्वदा॥ ५७/१८२ ॥
१०. सदृगाजीविकानां च सहस्रारावधिर्भवः।
न जिनेतरदृष्टेन लिङ्गेन तु ततः परम्॥ ६/१०४॥ हरिवंशपुराण।
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