________________
अ० २० / प्र० २
वराङ्गचरित / ६८१
यह दृष्टिकोण उत्तराध्ययन आदि श्वेताम्बर - आगमिक धारा के निकट है, उस दिगम्बरपरम्परा के निकट नहीं, जो शूद्रजलग्रहण और शूद्रमुक्ति का निषेध करती है। इससे जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ वरांगचरित के यापनीय अथवा कूर्चक होने की पुष्टि होती है। (जै. ध. या. स. / पृ. १९९ - २००)।
दिगम्बरपक्ष
वरांगचरित के उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि दया, रक्षा, कृषि और शिल्प इन चार कर्मविशेषों के आधार पर चार वर्ण निर्धारित किये गये हैं, यह तो स्पष्टतः दिगम्बरमत का प्रतिपादन है। दिगम्बराचार्य जिनसेन ने आदिपुराण ( भाग १ ) में इस मत की व्याख्या इस प्रकार की है
असिर्मषिः कृषिर्विद्या वाणिज्यं कर्माणीमानि षोढा स्युः तत्र वृत्तिं प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपादिक्षत् सरागो हि स तदासीज्जगद्गुरुः ॥ १६ / १८० ॥ तत्रासिकर्म सेवायां मषिर्लिपिविधौ स्मृता । कृषिभूकर्षणे प्रोक्ता विद्या शास्त्रोपजीवने । १६ / १८१ ॥ वाणिज्यं वणिजां कर्म शिल्पं स्यात् करकौशलम् ।
तच्च
चित्रकलापत्रच्छेदादि बहुधाइ स्मृतम् ॥ १६/१८२॥
Jain Education International
शिल्पमेव च ।
प्रजाजीवनहेतवः ॥ १६ / १७९॥
उत्पादितास्त्रयो वर्णास्तदा तेनादिवेधसा । क्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥ १६ / १८३ ॥
इन श्लोकों में स्पष्टरूप से कहा गया है कि आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने क्षतत्राण (विपत्ति से रक्षा), कृषि - वाणिज्य - पशुपालन तथा शिल्प आदि गुणों ( कर्मों) के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की उत्पत्ति की । आदिपुराण ( भाग २ ) के निम्नलिखित पद्य भी द्रष्टव्य हैं
मनुष्य- जातिरेकैव वृत्ति-भेदाहिताद्
जाति - नामोदयोद्भवा । भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ॥ ३८ / ४५ ॥
ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ ३८ / ४६ ॥
अनुवाद – “ जातिनामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से वह चार प्रकार की हो गयी है।" (३८/४५)।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org