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एकविंश अध्याय
हरिवंशपुराण
प्रथम प्रकरण
हरिवंशपुराण के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण
श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया एवं डॉ० सागरमल जी ने हरिवंशपुराणकार जिनसेन (७४८-८१८ ई०) को यापनीय - आचार्य और उनके द्वारा रचित हरिवंशपुराण को यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है, किन्तु इसके पक्ष में उन्होंने जो हेतु प्रस्तुत किये हैं, वे भी पहले की तरह असत्य या हेत्वाभास हैं। उनकी असत्यता एवं हेत्वाभासता का उद्घाटन बाद में किया जायेगा, पहले वे प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि यह दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है ।
हरिवंशपुराण में यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्त
१
स्त्रीमुक्तिनिषेध
हरिवंशपुराण में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, जो उसके दिगम्बरग्रन्थ होने और यापनीयग्रन्थ न होने का प्रबल प्रमाण है । यथा
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नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः । अध्यात्मकृत- नानात्वादुपर्युपरि - शुद्धयः ॥ ३ / ८४ ॥
संयतासंयतान्तेषु गुणस्थानेषु पञ्चसु ।
रूपं प्रत्यभिभेदोऽस्ति यथाध्यात्मकृतस्तथा ॥ ३/८५॥
अनुवाद - "छठे से लेकर चौदहवें तक नौ गुणस्थानों के जीवों में बाह्यरूप की अपेक्षा कोई भेद नहीं है, सब निर्ग्रन्थमुद्रा के धारक होते हैं। परन्तु विशुद्धि की अपेक्षा उनमें भेद है। अर्थात् वे उत्तरोत्तर अधिक विशुद्ध होते हैं । किन्तु पहले से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक के जीवों में बाह्यवेश तथा आत्मविशुद्धि दोनों की अपेक्षा भेद है।
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