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अ० १८ / प्र०६
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६१५ दोनों पद तो प्रायः एक हैं और इसलिये जो एक दूसरे का ऐक्य बतलाने के लिये खास महत्त्व के हैं और जो किसी भी प्रकार उपेक्षणीय नहीं हैं। अन्यथा आप्तता क्यों नहीं बन सकती? इसका स्पष्ट खुलासा रत्नकरण्डश्रावकाचार में नहीं मिलता और जिसका न मिलना स्वाभाविक है, क्योंकि रत्नकरण्ड आगमिक और विधिपरक रचना है, साथ में संक्षिप्त और विशद गृहस्थाचार की प्रतिपादक एक कृति है। सुकुमारमति गृहस्थों को वे यहाँ युक्तिजाल में आबद्ध करना (लपेटना) ठीक नहीं समझते, किन्तु वे इसका खुलासा आप्तमीमांसा की 'त्वन्मतामृतबाह्यानां' आदि कारिकाओं में करते हैं और कहते हैं कि उच्छिन्नदोषत्वादि के न होने से सदोषता में आप्तता नहीं बन सकती है। अतः यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार और आप्तमीमांसादि के कर्ता एक हैं और वे स्वामी समन्तभद्र हैं। (अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १२ / पृ. ३८४-८५)।
"यहाँ यह शंका उठ सकती है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार के भाषासाहित्य और. प्रतिपादनशैली के साथ आप्तमीमांसादि के भाषासाहित्य और प्रतिपादनशैली का मेल नहीं खाता। रत्नकरण्डश्रावकाचार की भाषा अत्यन्त सरल और स्पष्ट है, प्रतिपादनशैली भी प्रसन्न है, पर गहरी नहीं है, जब कि आप्तमीमांसादि कृतियों की भाषा अत्यन्त गूढ और जटिल है, थोड़े में अधिक का बोध कराने वाली है, प्रतिपादनशैली गंभीर और सूत्रात्मक है। अतः इन सब का एक कर्ता नहीं हो सकता? यह शंका एककर्तृकता में कोई बाधक नहीं है। रत्नकरण्डश्रावकाचार आगमिक दृष्टि से लिखा गया है और उसके द्वारा सामान्य लोगों को भी जैनधर्म का प्राथमिक ज्ञान कराना लक्ष्य है। आप्तमीमांसादि दार्शनिक कृतियाँ हैं और इसलिये वे दार्शनिक ढंग से लिखी गई हैं। उनके द्वारा विशिष्ट लोगों को, जगत् के विभिन्न दार्शनिकों को जैनधर्म के सिद्धान्तों का रहस्य समझाना लक्ष्य है।
"दूर नहीं जाइये, अकलंक को ही लीजिये। अकलंकदेव जब तत्त्वार्थसूत्र पर अपना तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य रचते हैं, तो वहाँ उनका भाषासाहित्य कितना सरल और विशद हो जाता है, प्रतिपादनशैली न गंभीर है और न गूढ़ है। किन्तु वही अकलंक जब लघीयस्त्रय, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और अष्टशती इन दार्शनिक कृतियों की रचना करते हैं, तो उनकी प्रतिपादनशैली कितनी अधिक सूत्रात्मक, दुरवगाह और गंभीर हो जाती है, वाक्यों का विन्यास कितना गूढ और जटिल हो जाता है कि उनके टीकाकार बरबस कह उठते हैं कि अकलंक के गूढ पदों का अर्थ व्यक्त करने की हममें सामर्थ्य नहीं है।५३ अतः जिस प्रकार अकलंकदेव का राजवार्तिकभाष्य
१५३. देवस्यानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु सर्वतः।
न जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं भुवि॥ अनन्तवीर्य।
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