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६२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १८ / प्र० ७
ग्रन्थ होने का ही प्रमाण है। डॉ० उपाध्ये ने उक्त गाथासाम्य से केवल यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यतः वट्टकेर कर्णाटक के थे, अतः सिद्धसेन भी कर्णाटक के थे। उन्होंने मूलाचार के कर्त्ता वट्टकेर को यापनीय सिद्ध नहीं किया है । यतः मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं है, अतः कथित हेतु भी असत्य है ।
यापनीयपक्ष
डॉ० पटोरिया — मदनूर ( जिला नेल्लोर) से प्राप्त एक संस्कृत शिलालेख १६३ में यह उल्लेख है कि कोटिमडुवगण में, जो यापनीयसंघ की शाखा थी, दिवाकर नाम के मुनिपुंगव हुए। यदि यही दिवाकर सिद्धसेन हैं, तो उनके यापनीय होने का निश्चित प्रमाण मिल जाता है । १६४
दिगम्बरपक्ष
इसका खण्डन माननीय डॉ० सागरमल जी के निम्नलिखित शब्दों से हो जाता है - " इस अभिलेख में उल्लिखित दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर हैं, यह कहना कठिन है, क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्रीमन्दिरदेवमुनि का उल्लेख है, जिनके द्वारा अधिष्ठित कटकाभरण जिनालय को यह दान दिया गया था । यदि दिवाकर, मन्दिरदेव के गुरु हैं, तो वे सिद्धसेन दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं, क्योंकि इस अभिलेख के अनुसार मन्दिरदेव का काल ईसवी सन् ९४५ अर्थात् विक्रम सं० १००२ है । इनके गुरु इनसे ५० वर्ष पूर्व भी माने जायँ, तो वे दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही सिद्ध होते हैं, जब कि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी भी स्थिति में पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं हैं।" (जै. ध. या.स./ पृ.२३८ ) । इस प्रकार सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु भी असत् है ।
इन प्रमाणों और युक्तियों के प्रकाश में हम देखते हैं कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन को यापनीय-आचार्य सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त हेतु असत्य एवं हेत्वाभास हैं । पूर्व प्रकरणों में यह भी सिद्ध हो चुका है कि वे श्वेताम्बर - परम्परा भी नहीं हैं । दर्शाये गये सभी प्रमाणों और युक्तियों से यही सिद्ध होता है कि वे दिगम्बराचार्य हैं ।
१६३. “यापनीयसंघप्रपूज्यकोटिमडुवगणेशमुख्यो यः --- - दिवाकराख्यो मुनिपुङ्गवोऽभूत्अभवदस्य शिष्यो --- ।" (जैनशिलालेखसंग्रह / माणिकचन्द्र / भाग २ / लेख १४३ / पृ.१८० / शक सं. ८६७, सन् ९४५ ई.) । १६४. यापनीय और उनका साहित्य / पृ. १४५ ।
श्रीमन्दिरदेवमुनिः
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