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६५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० १९ / प्र० २
उद्दिष्ट आहारदान और मुनियों की वसतिका आदि में आहार ले जाकर देने की विधि का उल्लेख मानना असत्य मान्यता है । अत एव यह हेतु असत्य है।
शेष जो मान्यताएँ दिगम्बरमत के विरुद्ध हैं, वे यापनीयमत की हैं, यह तो तभी कहा जा सकता है, जब वे किसी यापनीयग्रन्थ में उपलब्ध हों अर्थात् जिस ग्रन्थ में स्त्रीमुक्ति आदि का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन न किया गया हो अथवा स्त्रीमुक्ति आदि का प्रतिपादन किया गया हो, उस ग्रन्थ में मिलने पर ही उन्हें यापनीय-मान्यता कहा जा सकता है । अन्यथा उन्हें यापनीय-मान्यता कहना कपोलकल्पित बात होगी । यतः उपर्युक्त मान्याताएँ इस प्रकार के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हैं, अतः उन्हें यापनीयों की मान्यता कहना कपोलकल्पना मात्र है । अत एव रविषेण को यापनीय सिद्ध करने के लिए बतलाये गये उपर्युक्त हेतु असत्य हैं।
विषेणकृत पद्मपुराण में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि यापनीय मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः वह दिगम्बरग्रन्थ है और उसमें उपर्युक्त कथन हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि वे दिगम्बरग्रन्थ में होते हुए भी दिगम्बरम के विरुद्ध हैं । किन्तु ऐसा होना संभव है । इसका कारण है ग्रन्थकर्त्ता का लोकमान्यताओं और इतर सम्प्रदायों की मान्यताओं से प्रभावित होना और स्वरुचि के अनुसार उन्हें अपना लेना। रविषेण ने ऐसा ही किया है। वे श्वेताम्बर विमलसूरि के 'पउमचरिय' से प्रभावित हुये, इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थ के लिए रामकथा का अनुकरण वहीं से कर लिया, इस कारण प्रभवस्वामी का उल्लेख भी उसमें आ गया। भगवान् महावीर के द्वारा पादाङ्गुष्ठ से मेरु को कम्पित करने की मान्यता भी उन्होंने श्वेताम्बर - साहित्य से ग्रहण कर ली । तथा राम और कृष्ण के बीच उन्होंने जो चौंसठ हजार वर्ष का अन्तर बतलाया है, उसका उल्लेख श्वेताम्बरमत में भी नहीं है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार उनके बीच लाखों वर्षों का अन्तर है । १ ३ यह रविषेण के द्वारा स्वतंत्र मत का आरोपण है । इसी प्रकार दिगम्बर- परम्परा - प्रतिकूल अन्य मान्यताएँ भी उनके द्वारा कल्पित की गयी हैं, या किसी अन्य परम्परा से अपनायी गयी हैं।
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पुन्नाटवंशी जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में नारद को चरमशरीरी बतलाया है, " जबकि दिगम्बर- परम्परा उन्हें नरकगामी मानती है । १५ हरिवंशपुराण की दिगम्बरमत- प्रतिकूल अन्य मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए डॉ० पन्नालाल जी साहित्याचार्य लिखते हैं
" इसी प्रकार ६५ वें सर्ग के अन्त में कथा है कि बलदेव जब ब्रह्मलोक में देव हो चुके, तब वे अवधिज्ञान से कृष्ण के जीव का पता जानकर उसे सम्बोधन १३. देखिये, जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. १८० ।
१४. हरिवंशपुराण ४२ / १२, १३, २२ तथा ६५ / २४ ।
१५. देखिए, डॉ. पन्नालाल जी जैन साहित्याचार्य की हरिवंशपुराण - प्रस्तावना / पृ. १८ ।
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