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६६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२० / प्र०१ पूर्वोद्धृत श्लोकों में प्रयुक्त दिगम्बर और जातरूप शब्दों से सिद्ध है कि वरांगचरितकार ने निर्ग्रन्थ शब्द का प्रयोग नग्न दिगम्बर मुनि के अर्थ में किया है। अतः इस प्रयोग से भी सिद्ध होता है कि वरांगचरित में वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति के लिये स्थान नहीं दिया गया है। २.७. परीषहजयविधान दिगम्बरत्व की अनिवार्यता का सूचक
___ वरांगचरित में स्वर्ग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति के लिए मुनि को परीषहजय आवश्यक बतलाया गया है, यह मुनि के लिए निर्वस्त्र रहने की अनिवार्यता का सूचक है, क्योंकि वस्त्रधारी को परीषह संभव नहीं हैं। श्वेताम्बर और यापनीय साधना-पद्धतियों में परीषहजय आदि में असमर्थ पुरुषों के लिए ही वैकल्पिक रूप से वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गई है। इससे स्पष्ट है कि जिन ग्रन्थों में मुनि के लिए परीषहजय की आवश्यकता का प्रतिपादन है, वे न तो श्वेताम्बरग्रन्थ हैं, न यापनीयग्रन्थ। वरांगचरित के निम्न पद्य में आहारादिदान के लिए उत्तमपात्र उन्हीं मुनियों को बतलाया गया है, जो अन्य गुणों से युक्त होते हुए परीषहों से विचलित नहीं होते
येषां तु चारित्रमखण्डनीयं मोहान्धकारश्च विनाशितो यैः।
परीषहेभ्यो न चलन्ति ये च ते पात्रभूता यतयो जिताशाः॥ ७/५२॥ जो परीषहों से क्षणभर के लिए भी नहीं डिगते, बारह प्रकार के तप में दृढ़ रहते हैं, पाँचों समितियों में सावधान तथा त्रिगुप्ति-गुप्त होते हैं, उन्हें वरांगचरित में स्वर्ग में पदार्पण करनेवाला कहा गया है
परीषहाणां क्षणमप्यकम्प्या द्विषट्प्रकारे तपसि स्थिताश्च।
ये चाप्रमत्ताः समिती सदा ते त्रिगुप्तिगुप्तास्त्रिदिवं प्रयान्ति॥ ९/३४॥ ऐसे ही मुनियों को वरांगचरित में सर्वज्ञत्व की प्राप्ति बतलायी गयी
ईर्यापथादिष्वपि चाप्रमत्तो निर्वेदसंवेगविशुद्धभावः। परीषहान्दुर्विषहान् विजित्य तपस्क्रियां तां यतते यथोक्ताम्॥ ११/३२॥ सम्प्राप्य सार्वज्यमनुत्तमश्रीर्विधूय कर्माणि निरस्तदोषः।
निःश्रेयसां शान्तिमुदारसौख्यां लब्ध्वा चिरं तिष्ठति निष्ठितार्थः॥११/३३॥ इन प्रमाणों से सिद्ध है कि वरांगचरित में वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, जो उसके यापनीयग्रन्थ न होने और दिगम्बरग्रन्थ होने का पक्का सबूत है।
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