________________
६७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२०/प्र०२ अतः यदि 'वस्त्रान्नदानं श्रवणार्यिकाभ्यः' (२३/९२) में श्रवण के स्थान में श्रमण शब्द माना जाय, तो वह भी युक्तिसंगत होगा। किन्तु उससे 'मुनि' अर्थ ग्रहण नहीं किया जा सकता, अपितु उपर्युक्त दो उदाहरणों के समान उसे श्रमणा के रूप में 'आर्यिका' का ही विशेषण माना जा सकता है। ऐसा मानने का एक कारण यह भी है कि सम्पूर्ण वरांगचरित में मुनि को निर्ग्रन्थ, दिगम्बर और जातरूपधर ही कहा गया है, सचेल कहीं भी नहीं कहा गया।
यद्यपि 'मूलाचार' (गाथा ७८७, ८३२, ८७३ आदि) में श्रमण के अर्थ में 'श्रवण' शब्द का भी प्रयोग हुआ है, तथापि जटासिंहनन्दी ने 'वरांगचरित' के पूर्वोद्धृत पद्य (२३/९२) में 'श्रवण' शब्द का प्रयोग श्रावक के ही अर्थ में किया है, क्योंकि वहाँ जिनालय-निर्माण, जिनबिम्बप्रतिष्ठा, अभिषेक-पूजन आदि शुभ कार्यों के सम्पन्न होने के उपलक्ष्य में राजा वरांग के द्वारा मुनियों को आहारदान और आर्यिकाओं को वस्त्रान्नदान के साथ उपर्युक्त शुभ कार्यों में सहयोग करनेवाले श्रावकों एवं गृहस्थाचार्यों को पुरस्कृत करने एवं निर्धनों को किमिच्छक दान देने का प्रसंग है। इसके अतिरिक्त उक्त पद्य में मुनियों के लिए 'मुनिपुंगव' शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः 'श्रवण' शब्द को भी 'मुनि' का वाचक मानने से पुनरुक्तिदोष का प्रसंग आता है।
फिर भी यदि वहाँ 'श्रवण' शब्द को 'श्रमण' का ही वाचक माना जाय, तो वहाँ अर्जिका के विशेषण 'श्रवणा' (श्रमणा) का ही प्रयोग मानना होगा, क्योंकि श्रमणों का कथन उक्त पद्य के प्रथम पाद में 'मुनिपुंगव' शब्द से किया जा चुका है। अतः वहाँ 'श्रवणा' या 'श्रमणा' शब्द के स्थान में 'श्रमण' शब्द मानते हुए उससे मुनि अर्थ ग्रहणकर मुनियों को वस्त्रदान का अभिप्राय लेना वरांगचरितकार की मान्यताओं
और अभिप्राय के विरुद्ध है। अतः वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो यह हेतु बतलाया गया है कि उसमें 'श्रमण' शब्द से सचेलमुनियों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, वह सर्वथा असत्य है। इससे सिद्ध है कि यह यापनीयपरम्परा का नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है।
पुन्नाटसंघ का विकास पुन्नागवृक्षमूलगण से नहीं यापनीयपक्ष
हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन पुन्नाटसंघीय थे। पुन्नाटसंघ का विकास यापनीयसम्प्रदाय के पुन्नागवृक्षमूलगण से हुआ था। अतः जिनसेन यापनीय थे। उन्होंने जटासिंहनन्दी का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। अतः वे भी यापनीय रहे होंगे। (जै.ध.या.स./ पृ.१८७)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org