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अ०२० / प्र०१
वराङ्गचरित / ६६३ अनुवाद-"तप की अग्नि से झुलस कर उनका शरीर विवर्ण हो गया था। पहले से तो वे दुबली-पतली थी ही, व्रतों और उपवासों से और भी दुबली-पतली हो गईं। उनके शरीर की साड़ी छिन्न-भिन्न हो गई थी। वे काठ से बनायी हुई पुतलियों के समान लगती थीं।"
इस प्रकार यह कथन राजा वरांग की रानियों के विषय में है। यह प्रथम श्लोक (नरेन्द्रपल्यः ३१/१) के प्रसंग से भी स्पष्ट है तथा १३वें श्लोक में प्रयुक्त कृशाङ्यः, ताः, विवर्णदेहाः एवं काष्ठमात्रप्रतिमाः इन स्त्रीलिंगीय प्रथमा-बहुवचन के रूपों से भी स्पष्ट है। इसलिए विशीर्णवस्त्रावृतगात्रयष्टयः यह विशेषण भी उन्हीं के लिए प्रयुक्त हुआ है।
इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षी मान्य ग्रन्थलेखक द्वारा विशीर्णवस्त्राः विशेषण का प्रयोग मुनियों के लिए माना जाना उनकी संस्कृतभाषा से अनभिज्ञता, अथवा वरांगचरित के गंभीरतापूर्वक अध्ययन के अभाव अथवा छलवाद का सूचक है। इस तरह हम देखते हैं कि उक्त ग्रन्थलेखक ने एक दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए कितना शोधधर्म-विरुद्ध अवैधानिक मार्ग अपनाया है!
____ इसी प्रकार उक्त ग्रन्थलेखक महोदय ने ३०वें सर्ग के दूसरे श्लोक में वरांग मुनि के लिए प्रयुक्त निरस्तभूषाः शब्द से 'साजसज्जारहित' अर्थ ग्रहण किया है, 'नग्न' अर्थ नहीं। (जै.ध.या.स./पृ.१९७)। अर्थात् उनका वरांग मुनि को वस्त्रधारी ही मानने का आग्रह है। किन्तु ठीक इसके पूर्व २९वें सर्ग के ८५-८७ श्लोकों में कहा गया है कि राजा वरांग ने राज्य और वस्त्रादि परिग्रह का निर्माल्य की तरह परित्याग कर जातरूप (नग्नरूप) धारण कर लिया था। इससे स्पष्ट है कि उनके तथा उनके साथ में दीक्षित मुनियों के लिए प्रयुक्त निरस्तभूषाः विशेषण वस्त्राभूषणादि समस्त परिग्रह का त्याग कर नग्न हो जाने का ही सूचक है। उक्त ग्रन्थलेखक ने उस विशेषण पर स्वाभीष्ट अर्थ का आरोपण कर दिगम्बरग्रन्थ वरांगचरित को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने हेतु छलवाद की पद्धति अपनायी है। २.६. निर्ग्रन्थशूर ही मोक्ष के पात्र वरांगचरित में जटासिंहनन्दी ने निर्ग्रन्थशूरों को ही मोक्ष का पात्र बतलाया है
क्षमाविभूषाः पृथुशीलवस्त्रा गुणावतंसा दममाल्यलीलाः।
निर्ग्रन्थशूरा धृतिबद्धकक्षास्ते मोक्षमक्षीणमभिव्रजन्ति ॥ १०/१२॥ अनुवाद-"जो क्षमारूप अलंकार, उत्तमशीलरूपी वस्त्र, गुणरूपी कर्णाभूषण तथा दमरूपी माल्य धारण करते हैं एवं जिनकी कटि धैर्य से कसी हुई है, वे दिगम्बरमुनिरूपी वीर ही मोक्ष प्राप्त करते हैं।"
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