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अ० २० / प्र०१
वराङ्गचरित / ६६१ को आद्योपान्त पढ़ा ही नहीं है। पूर्व में 'राजा वरांग की दैगम्बरी दीक्षा' शीर्षक (२.१) के अन्तर्गत उन पद्यों को उद्धृत कर चुका हूँ, जिनमें वरांगचरितकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मुनिदीक्षा लेते समय राजा वरांग ने राज्य, वाहन, आभूषण, आच्छादन (वस्त्र) आदि का निर्माल्य की तरह परित्याग कर जातरूप (नग्नरूप) धारण कर लिया। यदि उक्तग्रन्थ लेखक ने वे पद्य पढ़े होते, तो वे ऐसा न लिखते कि 'संभव है वरांगकुमार को सवस्त्र ही दीक्षित दिखाया गया हो'। उन पद्यों में प्रयुक्त जातरूपं जग्राह शब्दों को पढ़ लेने पर किसी प्रकार की संभावना करने या अटकल लगाने के लिए स्थान ही नहीं रहता। इनको पढ़ने से तो निश्चित हो जाता है कि राजा वरांग की सवस्त्र-दीक्षा नहीं, अपितु निर्वस्त्र दैगम्बरी-दीक्षा हुई थी। २.४. साधु के साथ 'सवस्त्र' शब्द का प्रयोग एक भी बार नहीं
__वरांगकुमार की सवस्त्रदीक्षा सिद्ध करने के लिए उक्त ग्रन्थलेखक तर्क देते हैं कि वरांगचरित में वरांग मुनि के लिए 'दिगम्बर' शब्द का प्रयोग केवल एक बार मिलता है, हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय। (जै.ध.या.स./पृ.१९७)।
उनका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि वरांगकुमार दीक्षित तो वस्त्रसहित ही हुए थे, केवल हेमन्तकाल में अभावकाशयोग के समय दिगम्बर हो जाते थे। इसीलिए उन्हें हेमन्तकाल में शीतपरीषह सहते समय दिगम्बर कहा गया है।
किन्तु यह तर्क भी सिद्ध करता है कि मान्य ग्रन्थलेखक ने वरांगचरित का अध्ययन सतही तौर पर किया है, एक सरसरी निगाह भर डाली है, उसमें आलोड़न नहीं किया, इसीलिए ऐसी अतथ्यपूर्ण बातें उन्होंने लिखी हैं।
पहली बात तो यह है कि वरांगकुमार को केवल अभ्रावकाशयोग के समय ही दिगम्बर 'नहीं कहा गया है, अपितु दीक्षा ग्रहण करते समय भी जातरूप (नग्नत्व) धारण करनेवाला कहा गया है। इसके अतिरिक्त वृक्षमूलयोग, आतापनयोग, अस्पर्शयोग आदि के समय भी उन्हें दिगम्बर रूप में ही चित्रित किया गया है। कहा गया है कि वर्षा ऋतु में वृक्षमूलयोग के समय जल की धाराओं से उनके शरीर का मैल धुल जाता था-'धाराभिधौताङ्गमलाः' (३०/३१) और विद्युत् के प्रकाशरूपी वस्त्र उनके शरीर से लिपट जाते थे–'विद्युल्लतावेष्टनभूषिताङ्गाः' (३०/३१)। ग्रीष्मऋतु में आतापनयोग करने से सूर्यताप के कारण शरीर से पसीना बहता था, जिससे उड़ती हुई धूल देह पर बैठ जाती थी और देह धूल से लिप्त हो जाती थी-'स्वेदाङ्गमासक्तरजःप्रलिप्ताः ' (३०/३५)। इन वर्णनों से शरीर का नग्न रहना ही सूचित होता है। तथा वरांगचरित में ऐसा कथन कहीं भी नहीं है कि वरांगकुमार कभी वस्त्र ग्रहण कर लेते थे, कभी दिगम्बर हो जाते थे।
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