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६६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०२० / प्र०१ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७/३/पृ.३२०) में अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ इस प्रकार बतलायी गयी हैं : अनुवीचि-अवग्रहयाचन, अभीक्ष्ण-अवग्रहयाचन, अवग्रहावधारण, साधर्मिक से अवग्रहयाचन और अनुज्ञापितपानभोजन। वरांगचरित में इनमें से एक का भी उल्लेख नहीं है। उसमें दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुसरण किया गया है। (३१/७८)।
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (७/३) में ब्रह्मचर्यमहाव्रत की भावनाओं में स्त्री, पशु अथवा नपुंसक द्वारा सेवित शयन आदि का त्याग आवश्यक बतलाया गया है, जबकि वरांगचरित में स्त्रियों से परिपूर्ण आवास में रहने का निषेध है। (३१/७९)।
इस भिन्नता से सूचित होता है कि वरांगचरित की परम्परा श्वेताम्बर और यापनीय परम्पराओं से भिन्न दिगम्बरपरम्परा है।
यापनीयमत-विरुद्ध अन्य सिद्धान्त जटासिंहनन्दी ने वरांगचरित में ऐसे अन्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। यहाँ उनका संक्षेप में निर्देश किया जा रहा है
१. वरांगचरित में मुनि के लिए बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रह के त्याग का विधान किया गया है। यथा
बाह्याभ्यन्तरनैःसङ्ग्याद् गृहीत्वा तु महाव्रतम्।
मरणान्ते तनुत्यागः सल्लेखः स प्रकीर्त्यते॥ १५ / १२५॥ यह यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि उसमें वैकल्पिक सचेललिंग में वस्त्र पात्र रूप बाह्यपरिग्रह के ग्रहण की अनुमति दी गई है। २. वरांगचरित में स्वतन्त्र काल द्रव्य की सत्ता स्वीकार की गई है। यथा
जीवपुद्गलकालाश्च धर्माधर्मी नभोऽपि च। षड्द्रव्याण्युदितान्येवं तेषां लक्षणमुच्यते॥ २६/५॥ वर्तनालक्षणः कालस्विधा सोऽपि प्रभिद्यते।
अतीतोऽनागतश्चैव वर्तमान इति स्मृतः॥ २६ / २७॥ यह मान्यता भी श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों के मत के विरुद्ध है। श्वेताम्बरमत में काल द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। (त.सू./वि.स/पृ.१४४-१४५)।
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