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६५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २० / प्र० १
आप्त होते हैं । संसारी जीवों में जो रागद्वेषमोह विद्यमान रहते हैं, वे उपर्युक्त दोषरहित आप्तों में नहीं होते, इसलिए उन्हें आप्ततमों (सर्वज्ञों) ने अरहन्त कहा है । "
यहाँ अरहन्त भगवान् में क्षुधा तृषा की पीड़ाओं का अभाव स्पष्ट शब्दों में बतलाया गया है, जो केवलिभुक्ति - निषेध का ज्वलन्त प्रमाण है । मात्र इस एक प्रमाण से वरांगचरित का यापनीयग्रन्थ न होना सिद्ध हो जाता है, क्योंकि स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति की मान्यताएँ यापनीयमत के मौलिक सिद्धान्त हैं और उनमें से केवलिभुक्ति का मौलिक सिद्धान्त यहाँ अस्वीकार किया गया है। इस एक प्रमाण से यह भी सिद्ध हो जाता है कि यह दिगम्बरग्रन्थ है और यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक ने इसे यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिये हैं, वे सब असत्य हैं या हेत्वाभास हैं ।
केवलिभुक्तिनिषेध पर आवरण: छलवाद
उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ-लेखक ने दावा किया है कि उन्होंने मूल ग्रन्थ को प्रयासपूर्वक देखा है । वे लिखते हैं- " यद्यपि श्रीमती पटोरिया के अनुसार वरांगचरित में ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिससे जटासिंहनन्दी और उनके ग्रन्थ को यापनीय कहा जा सके, किन्तु मेरी दृष्टि में श्रीमती कुसुम पटोरिया का यह कथन समुचित नहीं है। संभवतः उन्होंने मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयत्न ही नहीं किया और द्वितीयक स्रोतों से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर ऐसा मानस बना लिया। मैंने यथासंभव मूल ग्रन्थ को देखने का प्रयास किया है और उसमें मुझे ऐसे अनेक तत्त्व मिले हैं, जिनके आधार पर वरांगचरित और उसके कर्त्ता जटिलमुनि या जटासिंहनन्दी को दिगम्बरपरम्परा से भिन्न यापनीय अथवा कूर्चकपरम्परा से सम्बद्ध माना जा सकता है।" (जै. ध. या. स. / पृ. १८५) ।
मान्य ग्रन्थलेखक का यह दावा कितना खोखला है, यह इसी बात से सिद्ध है कि उनकी दृष्टि वरांगचरित में केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले उपर्युक्त श्लोकों पर नहीं गई । अथवा गई हो, तो उन्होंने उन्हें छिपाने का प्रयास किया है और एक दिगम्बरग्रन्थ को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए न्यायशास्त्र के छलवाद नामक अवैध मार्ग का आश्रय लिया है।
वरांगचरित में उपलब्ध यापनीयमत- विरुद्ध सिद्धान्तों में केवलिभुक्ति-निषेध तो केवल एक उदाहरण है । अन्य उदाहरण भी देखिए ।
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वैकल्पिक सवस्त्रमुक्ति-निषेध
यापनीयमत में निर्वस्त्रमुक्ति के अतिरिक्त सवस्त्रमुक्ति का विकल्प भी मान्य किया गया है। अतः उसमें वस्त्रधारी पुरुष को भी मुनि नाम दिया गया है। किन्तु वरांगचरित में
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