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६४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१९/प्र०१ गणी की वसुदेवहिंडी के निम्नवाक्य से प्रकट है-"तत्थ ताव सुहम्मसामिणा जंबूनामस्स पढमाणुओगे तित्थयरचक्कवट्टि-दसारवंसपरूवणगयं वसुदेवचरियं कहियं ति तस्सेव---त्ति।"८
"इस बात को श्वेताम्बर ऐतिहासिक विद्वान् श्री मोहनलाल दुलीचन्द जी देसाई एडवोकेट बम्बई ने भी 'कुमारपालना समय- एक अपभ्रंश काव्य' नामक अपने लेख में स्वीकार किया है और इसे भी प्रद्युम्नचरित नामक उक्त काव्यग्रन्थ के कर्ता को दिगम्बर बतलाने में एक हेतु दिया है। (देखिये, 'जैनाचार्य श्री आत्मानन्द जन्मशताब्दी स्मारक ग्रन्थ'। गुजराती लेख/पृ. २६०)।"
यह बात डॉ० सागरमल जी ने भी इन शब्दों में स्वीकार की है-"किन्तु वसुदेवहिण्डी में 'जम्बू ने प्रभव को कहा' ऐसा भी उल्लेख है, जबकि दिगम्बर-परम्परा के कथाग्रन्थों में सामान्यतया 'श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर ने कहा' ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है।" (जै.ध.या.स./२०८-२०९)।
- पद्मपुराण में इन यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से सिद्ध है कि यह यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बर-परम्परा का है।
८. 'पउमचरिय का अन्तःपरीक्षण'/ अनेकान्त/वर्ष ५/ किरण १०-११/ नवम्बर-दिसम्बर, १९४३/
पृ. ३४१। ९. वही/पादटिप्पणी।
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