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अ० १९ / प्र०१
रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३७ अनुवाद-"जो भव्य प्राणी देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् के वचनों से अत्यन्त प्रभावित हो मोक्षमार्ग के अनुरूप शील, सत्य, शौच, सम्यक् तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त होते हुए अष्ट कर्मों के नाश का प्रयत्न करते हैं, वे उत्कृष्ट वैभव से युक्त हो, देवों के उत्तम स्वामी होते हैं और वहाँ अनेक सागर पर्यन्त नाना प्रकार के सुख भोगते हैं। तदनन्तर वहाँ से च्युत हो अवशिष्ट धर्म के फलस्वरूप प्रचुर भोग और लक्ष्मी प्राप्त करते हैं। अन्त में रत्नत्रय का आश्रय ले, राज्यादि का परित्याग कर जैनलिंग (दिगम्बरमुद्रा) धारण करते हैं। फिर अत्यन्त घोर तप कर शुक्लध्यान के द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। पश्चात् आयु का क्षय होने पर समस्त कर्मों से मुक्त होकर लोकाग्र पर आरूढ़ हो सिद्धावस्था में अनन्त आत्मोत्थ उत्तम सुख का अनुभव करते हैं।
इस प्रकार आचार्य रविषेण के मत में जैनलिंग के ही द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। और उन्होंने सर्वत्र दिगम्बरमुद्रा को ही जैनलिंग प्रतिपादित किया है। कहीं भी आपवादिक सवस्त्र मुनिलिंग को जैनलिंग या जिनमुद्रा नहीं कहा। इससे सिद्ध है कि रविषेण यापनीयमतावलम्बी नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य ही हैं।
वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी की क्षुल्लक संज्ञा आचार्य रविषेण ने वस्त्रमात्र-परिग्रहधारी मोक्षसाधक को स्थविरकल्पी साधु या अपवादमार्गी सवस्त्र साधु की संज्ञा नहीं दी, अपितु क्षुल्लक संज्ञा दी है, जो दिगम्बरपरम्परा में उत्कृष्ट श्रावक का पद है। उसके स्वरूप का वर्णन रविषेण ने इस प्रकार किया है
ततस्तत्पुण्ययोगेन सिद्धार्थो नाम विश्रुतः। शुद्धात्मा क्षुल्लकः प्राप वज्रजङ्घस्य मन्दिरम्॥ १००/३२॥ सन्ध्यात्रयमबन्ध्यं यो महाविद्यापराक्रमः। मन्दरोरसि वन्दित्वा जिनानेति पदं क्षणात् ॥ १००/३३॥ प्रशान्तवदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तकः। साधुभावनचेतस्को वस्त्रमात्रपरिग्रहः॥ १००/३४॥ उत्तमाणुव्रतो नाना-गुण-शोभन-भूषितः। जिनशासन-तत्त्वज्ञः-कला-जलधि- पारगः॥ १०० / ३५॥ अंशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलात्मना। मृणालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थरः॥ १००/३६॥
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