________________
षष्ठ प्रकरण रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसादि में शब्दार्थसाम्य
माननीय कोठिया जी ने 'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?' इस लेख के उत्तर भाग (पृ.३८४-३८५) में १५२ रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसादि ग्रन्थों में उपलब्ध शब्दार्थसाम्य के उदाहरण देकर यह भी सिद्ध किया है कि आप्तमीमांसादि ग्रन्थों के कर्ता समन्तभद्र ही 'रत्नकरण्ड' के कर्ता हैं, जो पूर्वोक्त प्रकार से इस बात का प्रमाण है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र के पश्चात् हुए हैं। उनके शब्द इस प्रकार हैं
"आप्तमीमांसाकार ही रत्नकरण्ड के कर्ता हैं, इस बात को मैं अन्तःपरीक्षण द्वारा भी प्रकट कर देना चाहता हूँ, ताकि फिर दोनों के कर्तृत्व के सम्बन्ध में कोई संदेह या भ्रम न रहे
"१. रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक ९ में शास्त्र के लक्षण में एक खास पद दिया गया है, जो बड़े महत्त्व का है और जो निम्न प्रकार है
'अदृष्टेष्टविरोधकम्। --- शास्त्रं ---' ॥ ९॥ र.क.बा.।
"स्वामी समन्तभद्र शास्त्र के इसी लक्षण को युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा और स्वयंभूस्तोत्र में देते हैं। यथा
क-दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते॥ ४८॥ युक्त्यनुशासन। ख-युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्---अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ ६॥
__ आप्तमीमांसा। -ग-दृष्टेष्टाविरोधतः स्याद्वादः॥ १३८॥ स्वयम्भूस्तोत्र ।
"यहाँ तीनों जगह शास्त्र का वही लक्षण दिया है, जिसे रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है और जिसे यहाँ तार्किकरूप दिया है। पाठक देखेंगे कि यहाँ शब्द और अर्थ प्रायः दोनों एक हैं। (अनेकान्त/वर्ष६/किरण १२/ पृ.३८४)।
"२. रत्नकरण्ड में ब्रह्मचर्यप्रतिमा का लक्षण करते हुए कहा गया है कि 'पूतिगन्धि बीभत्सम्---अङ्गम्' (र.क. श्रा. १४३) और यही स्वयंभूस्तोत्र में सुपार्श्वजिन
१५२. 'अनेकान्त'/ वर्ष ६/किरण १२ / जुलाई १९४४ ।
Jain Education Intemational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org