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६१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० ७
अनुरूप आदर प्रदान करने के लिए अपनी परम्परानुसार इस विशेषण से विभूषित किया है।
दिगम्बराचार्यों ने सिद्धसेन और उनके सन्मतिसूत्र का अनेकत्र उल्लेख किया है, किन्तु 'श्रुतकेवली' विशेषण का प्रयोग नहीं किया। यदि वे यापनीय होते, तो समकालीन दिगम्बर आचार्यों से उनका सम्प्रदाय छिपा न रहता । हरिवंशपुराण के कर्त्ता जिनसेन, आदिपुराण के कर्त्ता जिनसेन, पद्मपुराणकार रविषेण तथा धवलाकार वीरसेन स्वामी समकालीन यापनीय आचार्यों से सुपरिचित रहे होंगे । यदि सन्मतिसूत्र यापनीयचार्य की कृति होती, तो वे सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के समर्थक जैनाभासी आचार्य को अपनी परम्परा के आचार्यों एवं गुर्वावलियों में परिगणित कर एवं उनकी सूक्तियों को अपने ग्रन्थों में प्रमाणरूप से उद्धृत कर प्रगाढ़ भक्ति और श्रद्धा प्रकट न करते ।
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यापनीयपक्ष
डॉ० उपाध्ये – सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर - आगमों से कुछ बातों में विरोध है, इसीलिए उसे श्वेताम्बरप्रबन्धों में स्थान नहीं मिला। यह सन्मतिसूत्रकार के यापनीय होने का प्रमाण है।
दिगम्बरपक्ष
सन्मतिसूत्रकार का मुख्यतः उपयोग- अभेदवाद की अपेक्षा श्वेताम्बर - आगमों से विरोध है। यह उनके श्वेताम्बर न होने का प्रमाण तो है, किन्तु यापनीय होने का प्रमाण नहीं है, क्योंकि अभेदवाद यापनीयों का सिद्धान्त था, यह किसी अन्य स्रोत से प्रमाणित नहीं है। इसके विपरीत यापनीय श्वेताम्बर - आगमों को मानते थे, यह सुप्रसिद्ध है, अतः श्वेताम्बर - आगम-मान्य क्रमवाद यापनीयों को भी मान्य था, यह स्वतः फलित होता है। यह केवल दिगम्बरों को अमान्य था, अतः सन्मतिसूत्र में उसका खण्डन एवं अभेदवाद का प्रतिपादन दिगम्बरमान्यताओं के अनुरूप होने से सिद्ध होता है कि सिद्धसेन दिगम्बर ही हैं । यतः उपयोग- अभेदवाद यापनीयों का सिद्धान्त नहीं था, अतः यह हेतु असत्य है ।
यापनीयपक्ष
डॉ० उपाध्ये—'पंचम द्वात्रिंशिका' में महावीर के विवाहित होने का संकेत है। यह सिद्धसेन के यापनीय होने का सूचक है।
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