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अ०१८ / प्र०५
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६११ स्पष्ट है। और उसे अपनाकर ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ का उसी प्रकार अङ्ग बना लिया है, जिस प्रकार अकलङ्कदेव ने आप्तमीमांसा की 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' कारिका को अपनाकर अपने न्यायविनिश्चय में कारिका ४१५ के रूप में ग्रन्थ का अंग बना लिया है। न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि ने, जिनका समय ९वीं शताब्दी है, इस पद्य की टीका भी की है, इससे रत्नकरण्ड की सत्ता निश्चय ही ९वीं और ७वीं शताब्दी से पूर्व पहुँच जाती है।
"५. ईसा की पाँचवीं (विक्रम की छठी) शताब्दी के विद्वान् आ० पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में रत्नकरण्डश्रावकाचार के कितने ही पद, वाक्यों और विचारों का शब्दशः और अर्थशः अनुसरण किया है, जिसका मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जी ने अपने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र का प्रभाव' नामक लेख में अच्छा प्रदर्शन किया है।५१ यहाँ उसके दो नमूने दिये जाते है
क . र. क. श्रा. - तिर्यक्क्लेश-वणिज्या-हिंसारम्भ-प्रलम्भनादीनाम्।
कथाप्रसङ्गः प्रसवः स्मर्तव्यः पाप उपदेशः॥ ७६॥ स.सि. - तिर्यक्क्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिषु पापसंयुक्तं वचनं
पापोदेशः। ७/२१/७०३/पृ. २६४।
र. क. श्रा. - अभिसन्धिकृता विरति:---व्रतं भवति॥ ८६॥ स. सि.. - व्रतमभिसन्धिकृतो नियमः। ७/१/६६५/पृ. २६४।
"ऐसी हालत में छठी शताब्दी से पूर्व के रचित रत्नकरण्ड के कर्ता (समन्तभद्र) ११वीं शताब्दी के उत्तरवर्ती रत्नमालाकार शिवकोटि के गुरु कदापि नहीं हो सकते।
"अतः उपर्युक्त विवेचन से जहाँ यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड के कर्ता रत्नमालाकार शिवकोटि के साक्षात् गुरु नहीं हैं, वहाँ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि निकरण्डश्रावकाचार सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद (४५० ई०) से पूर्व की कृति है।" (अनेकान्त/वर्ष ६/ किरण १२/ पृ.३८१-८२)। (लेख समाप्त)। । उपर्युक्त प्रमाण यह भी सिद्ध कर देते हैं कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन स्वामी समन्तभद्र से पूर्ववर्ती नहीं, अपितु, उत्तरवर्ती हैं।
१. देखिये, अनेकान्त / वर्ष ५/किरण १०-११ ।
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