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६१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० ५
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'अतः इन दो स्पष्ट समकालीन उल्लेखों से यह निश्चित है कि रत्नकरण्ड ११वीं शताब्दी के पहले की रचना है, उत्तरकालीन नहीं ।
" ३. आ० सोमदेव (वि० सं० १०१६) के यशस्तिलक में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का कितना ही उपयोग हुआ है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं
र. क. श्री.
यशस्तिलक
र.क. श्री.
यशस्तिलक
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क
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स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्यीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ २६ ॥
यो
मदात्समयस्थानामवह्लादेन मोदते ।
स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकैर्विना ॥ पृ. ४१४ ॥
ख
नियमो यमश्च विहितौ द्वेधा भोगोपभोगसंहारे । नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते ॥ ८७ ॥
यमश्च नियमश्चेति द्वे त्याज्ये वस्तुनी स्मृते । यावज्जीवं यमो ज्ञेयः सावधिर्नियमः स्मृतः ॥ पृ. ४०३ ॥
"इससे साफ है कि रत्नकरण्ड और उसके कर्ता का अस्तित्व सोमदेव (वि० १०१६ ) से पूर्व का है। " ( अनेकान्त / वर्ष ६ / किरण १२ / पृ. ३८१) ।
" ४. विक्रम की ७वीं शताब्दी के आ० सिद्धसेन दिवाकर के प्रसिद्ध न्यायावतार ग्रन्थ में रत्नकरण्ड श्रावकाचार का 'आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्य' श्लो० ९ ज्यों का त्यों पाया जाता है, जो दोनों ही ग्रन्थों के संदर्भों का ध्यान से समीक्षण करने पर निःसंदेह रत्नकरण्ड का ही पद्य स्पष्ट प्रतीत होता है । रत्नकरण्ड में जहाँ वह स्थित है, वहाँ उसका मूलरूप से होना अत्यन्त आवश्यक है । किन्तु यह स्थिति न्यायावतार के लिये नहीं है, वहाँ यह श्लोक मूलरूप में न भी रहे, तो भी ग्रन्थ का कथन भंग नहीं होता । क्योंकि वहाँ परोक्षप्रमाण के 'अनुमान' और 'शाब्द' ऐसे दो भेदों को बतलाकर स्वार्थानुमान के कथन के बाद 'स्वार्थ शाब्द' का कथन करने के लिये श्लोक ८ रचा गया है और इसके बाद उपर्युक्त आप्तोपज्ञ श्लोक दिया गया है। परार्थ शाब्द और परार्थ अनुमान को बतलाने के लिये भी आगे स्वतंत्र - स्वतंत्र श्लोक हैं, अतः यह पद्य श्लोक ८ में उक्त विषय के समर्थनार्थ ही रत्नकरण्ड से अपनाया गया है, १५०
यह
१५०. विशेष के लिये देखिये, 'स्वामी समन्तभद्र / पृ. १२७ से १३२ ।
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