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६९४ / जैनपरप्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०६ की स्तुति में कहा है '--- जीवधृतं शरीरम्। बीभत्सु पूति क्षयि' (श्लोक ३२)। ये दोनों वाक्य स्पष्ट ही एक व्यक्ति की भावना को बंतलाते हैं।
"३. रत्नकरण्डश्रावकाचार में आप्त का लक्षण निम्नलिखित किया गया है, जो खास ध्यान देने योग्य है
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्॥ ५॥ , "इस श्लोक को पाठक, आप्तमीमांसा की निम्न कारिकाओं के साथ पढ़ने का कष्ट करें
सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः॥ ३॥ दोषावरणयोहानि-निश्शेषाऽस्त्यति-शायनात्। क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥ ४॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्। अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते॥ ६॥ त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम्।
आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते॥ ७॥ "यहाँ देखेंगे कि रत्नकरण्ड में आप्त का आगमिक दृष्टि से जो स्वरूप बताया गया है, उसे ही समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा की इन कारिकाओं में विभिन्न दार्शनिकों के सामने दार्शनिक ढंग से अन्ययोगव्यवच्छेदपूर्वक रक्खा है और प्रतिज्ञात आप्तस्वरूप को ही अपूर्व शैली से सिद्ध किया है। 'आप्त' के लिये सबसे पहिले उच्छिन्नदोष होना आवश्यक और अनिवार्य है, फिर सर्वज्ञ और इसके बाद शास्ता। जो इन तीन बातों से विशिष्ट है, वही सच्चा आप्त है। इसके बिना 'आप्तता' संभव नहीं है। समन्तभद्र आप्तमीमांसा में इसी बात को युक्ति से सिद्ध करते हैं। 'दोषावरणयोः' कारिका के द्वारा उच्छिन्नदोष, 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः' के द्वारा सर्वज्ञ और 'स त्वमेवासि निर्दोषो' तथा 'त्वन्मतामृत' इन दो कारिकाओं के द्वारा शास्ता-अविरोधिवक्ता प्रकट किया है। सबसे बड़े महत्त्व की बात तो यह है कि रत्नकरण्ड में आप्तत्व के प्रयोजक क्रम-विकसित जिन गुणों का प्रतिपादन-क्रम रक्खा है, उसे ही आप्तमीमांसा में अपनाया और प्रस्फुटित किया है। 'ह्यन्यथा आप्तता न भवेत्' और 'सर्वेषामाप्तता नास्ति' ये
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