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५९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०४ योगी और योगीन्द्र विशेषणों का उनके नाम के साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया, तब प्रेमी जी तो उस विषय में मौन हो रहे, परन्तु प्रो० साहब ने इस चर्चा को यह लिखकर लम्बा किया कि
"मुख्तार साहब तथा न्यायाचार्य जी ने जिस आधार पर योगीन्द्र शब्द का उल्लेख प्रभाचन्द्रकृत स्वीकार कर लिया है, वह भी बहुत कच्चा है। उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं, उनसे जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानों में से किसी एक ने भी अभी तक न प्रभाचन्द्र का कथाकोष स्वयं देखा है और न कहीं यह स्पष्ट पढ़ा या किसी से सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोष में समन्तभद्र के लिये योगीन्द्र शब्द आया है। केवल प्रेमीजी ने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथाओं में कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्त की कथा प्रभाचन्द्र की गद्यकथा का प्रायः पूर्ण अनुवाद है।" उसी के आधार पर आज उक्त दोनों विद्वानों को यह कहने में कोई आपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य कथाकोष में स्वामी समन्तभद्र को योगीन्द्र रूप में उल्लेखित किया है।"
"इस पर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोष को मँगाकर देखा गया और उस पर से समन्त- भद्र को 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बतलानेवाले जब डेढ़ दर्जन के करीब प्रमाण न्यायाचार्य जी ने अपने अन्तिम लेख में १२५ उद्धृत किये, तब उसके उत्तर में प्रो० साहब अब अपने पिछले लेख में यह कहने बैठे हैं, जिसे वे नेमिदत्त-कथाकोष के अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि "कथानक में समन्तभद्र को केवल उनके कपटवेष में ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेष में कहीं भी उक्त शब्द का प्रयोग नहीं पाया जाता।" यह उत्तर भी वास्तव में कोई उत्तर नहीं है। इसे भी केवल उत्तर के लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। क्योंकि समन्तभद्र के योग-चमत्कार को देखकर जब शिवकोटिराजा, उनका भाई शिवायन और प्रजा के बहुत से जन जैनधर्म में दीक्षित हो गये तब योगिरूप में समन्तभद्र की ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और वे आमतौर पर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर कोई समझ सकता है, क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्र के साथ सम्बद्ध था, न कि उनके पाण्डुराङ्गतपस्वीवाले वेष के साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वी के वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों, जैनवेषवाले मुनियों को योगी न कहा जाता हो। यदि ऐसा होता, तो रत्नकरण्ड के कर्ता को भी 'योगीन्द्र' विशेषण से उल्लेखित न किया जाता। वास्तव में योगी एक सामान्य शब्द है, जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी आदिक का वाचक है, जैसा कि धनञ्जय-नाममाला के निम्न वाक्य से प्रकट है
१२५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११/पृ. ४२०-४२१ ।
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