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५९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ ___ "इस तरह प्रो० साहब की तीसरी आपत्ति में कुछ भी सार मालूम नहीं होता। युक्ति के पूर्णतः सिद्ध न होने के कारण वह रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा के एककर्तृत्व में बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये उसे भी समुचित नहीं कहा जा सकता।
"IV. अब रही चौथी आपत्ति की बात, जिसे प्रो० साहब ने रत्नकरण्ड के निम्न उपान्त्य पद्य पर से कल्पित करके रक्खा है
येन स्वयं वीतकलङ्कविद्यादृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्।
नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विष्टपेषु॥ "इस पद्य (१४९) में ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए यह बतलाया गया है कि "जिस (भव्य जीव) ने आत्मा को निर्दोषविद्या, निर्दोषदृष्टि और निर्दोषक्रियारूप रत्नों के पिटारे के भाव में परिणत किया है, अपने आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयधर्म का आविर्भाव किया है, उसे तीनों लोकों में सर्वार्थसिद्धि, धर्म-अर्थ-काम मोक्षरूप सभी प्रयोजनों की सिद्धि स्वयंवरा कन्या की तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है, अर्थात् उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे स्वेच्छा से अपना पति बनाती है, जिससे वह चारों पुरुषार्थों का स्वामी होता है और उसका कोई भी प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।"
"इस अर्थ को स्वीकार करते हुए प्रो० साहब का जो कुछ विशेष कहना है, वह यह है-"यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्र के द्वारा बतलाये गये वाच्यार्थ के अतिरिक्त श्लेषरूप से यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि "जिसने अपने को अकलङ्क और विद्यानन्द के द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नों की पिटारी बना लिया है, उसे तीनों स्थलों पर सर्व अर्थों की सिद्धिरूप सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैसे इच्छामात्र से पति को अपनी पत्नी।" यहाँ निःसन्देहतः रत्नकरण्डकार ने तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गई तीनों टीकाओं का उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं अर्थतः, अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दकृत श्लोकवार्तिक में प्रायः पूरी ही ग्रथित है। अत: जिसने अकलङ्ककृत और विद्यानन्द की रचनाओं को हृदयङ्गम कर लिया, उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं आ जाती है। रत्नकरण्ड के इस उल्लेख पर से निर्विवादतः सिद्ध हो जाता है कि यह रचना न केवल पूज्यपाद से पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्द से भी पीछे की है।"१३४ ऐसी हालत में रत्नकरण्डकार का आप्तमीमांसा के कर्ता से एकत्व सिद्ध नहीं होता।३५
१३४. अनेकान्त / वर्ष ७/किरण ५-६/पृ.५३। १३५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण ३/ पृ. १३२।
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