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अ०१८ / प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५९३ "हाँ, यहाँ पर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि प्रो० साहब ने अपने "विलुप्त अध्याय' में यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन साहित्य में जो आचार्य स्वामी की उपाधि से विशेषतः विभूषित किये गये हैं, वे आप्तामीमांसा के कर्ता समन्तभद्र ही हैं।" और आगे श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख में भद्रबाहु द्वितीय के साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देखकर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहु की उपाधि 'स्वामी' थी, जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्र के लिये ही प्रयुक्त हई है" समन्तभद्र और भद्रबाह द्वितीय को 'एक ही व्यक्ति' प्रतिपादित किया था। इस पर से कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन समन्तभद्र के साथ स्वामी पद लगा हुआ हो उन्हें प्रो० साहब के मतानुसार आप्तमीमांसा का कर्ता समझना चाहिए। तदनुसार ही प्रो० साहब के सामने रत्नकरण्ड की टीका का उक्त प्रमाण यह प्रदर्शित करने के लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्रचार्य भी रत्नकरण्ड को स्वामी समन्तभद्रक लिख रहे हैं और प्रो० साहब 'स्वामी' पद का असाधारण सम्बन्ध आप्तमीमांसाकार के साथ जोड़ रहे हैं, तब वह उसे आप्तमीमांसाकार से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति कैसे बतलाते हैं? इसके उत्तर में प्रो० साहब ने लिखा है कि "प्रभाचन्द्र का उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्ड के कर्ता स्वामी समन्तभद्र हैं. उन्होंने यह तो प्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकरण्ड के कर्ता आप्तमीमांसा के भी रचयिता हैं।"१३२ परन्तु साथ में लगा हुआ स्वामी पद तो उन्हीं के मन्तव्यानुसार उसे प्रकट कर रहा है, यह देखकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि "रत्नकरण्ड के कर्ता समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद बाद को जुड़ गया है, चाहे उसका कारण भ्रान्ति हो या जान बूझकर ऐसा किया गया हो।" परन्तु अपने प्रयोजन के लिये यह कह देने मात्र से कोई काम नहीं चल सकता, जब तक कि उसका कोई प्राचीन आधार व्यक्त न किया जाय, कम से कम प्रभाचन्द्राचार्य से पहले की लिखी हुई रत्नकरण्ड की कोई ऐसी प्राचीन मूल प्रति पेश होनी चाहिये थी, जिसमें समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ न हो। लेकिन प्रो० साहब ने पहले की, ऐसी कोई भी प्रति पेश नहीं की, तब वे बाद को भ्रान्ति आदि के वश 'स्वामी' पद के जुड़ने की बात कैसे कह सकते हैं? नहीं कह सकते, उसी तरह, जिस तरह कि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्ड के सात पद्यों को प्रभाचन्द्रीय टीका से पहले की ऐसी प्राचीन प्रतियों के न मिलने के कारण प्रक्षिप्त नहीं कह सकते,१३३ जिनमें वे मद्य सम्मिलित न हों।" (जै.सा.इ.वि.प्र./ खं.१/४७०-४७३)।
१२. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण ३/पृ. १२९ । ३. अनेकान्त / वर्ष ९ / किरण १/ पृ. १२ पर प्रकाशित प्रोफेसर साहब का उत्तर पत्र।
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