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६०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०४ समय भी दिगम्बरमान्य समय (विक्रम की दूसरी शताब्दी) के अनुकूल है और जिनका आप्तमीमांसाकार के साथ एकत्व मानने में प्रो० सा० को कोई आपत्ति भी नहीं है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१/पृ. ४७९-४८२)।
"रत्नकरण्ड के इन सब उल्लेखों की रोशनी में प्रो० साहब की चौथी आपत्ति और भी निःसार एवं निस्तेज हो जाती है और उनके द्वारा ग्रन्थ के उपान्त्य पद्य में की गई श्लेषार्थ की उक्त कल्पना बिल्कुल ही निर्मूल ठहरती है, उसका कहीं से भी कोई समर्थन नहीं होता। रत्नकरण्ड के समय को जाने-अनजाने रत्नमाला के रचनाकाल (विक्रम की ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध या उसके भी बाद) के समीप लाने का आग्रह करने पर यशस्तिलक के अन्तर्गत सोमदेवसूरि का ४६ कल्पों में वर्णित उपासकाध्ययन (वि.सं.१०१६) और श्रीचामुण्डराय का चारित्रसार (वि० सं० १०३५ के लगभग) दोनों रत्नकरण्ड के पूर्ववर्ती ठहरेंगे, जिन्हें किसी तरह, भी रत्नकरण्ड से पूर्ववर्ती सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों रत्नकरण्ड के कितने ही शब्दादि के अनुसरण को लिये हुए हैं। चारित्रसार में तो रत्नकरण्ड का 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' नाम का एक पूरा पद्य भी 'उक्तं च' रूप से उद्धृत है। और तब प्रो० साहब का यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड श्रावकाचार है' उनके विरुद्ध जायगा, जिसे उन्होंने धवला की चतुर्थ पुस्तक (क्षेत्रस्पर्शन अनु०) की प्रस्तावना में व्यक्त किया है१४२.१ और जिसका
१४२.१. उक्त कथन प्रो० हीरालाल जी जैन ने अपने लेख 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन
का अधिकार' में किया है। (देखिये, आगे पंचम प्रकरण / पैराग्राफ ५)। यह लेख षट्खण्डागम की चौथी पुस्तक की प्रस्तावना में सम्मिलित किया गया था, जैसा कि प्रो० हीरालाल जी जैन ने इस चौथी पुस्तक के ई० सन् १९४१ में प्रकाशित प्रथम संस्करण के प्राक्कथन (पृष्ठ २) में निम्नलिखित शब्दों में सूचित किया है"---हमारे इस विवेचन को पाठक प्रस्तुत भाग की प्रस्तावना में 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' शीर्षक में देखेंगे, जिससे उन्हें पता चल जायेगा कि कुन्दकुन्द, समन्तभद्र आदि जैसे अत्यन्त प्राचीन और प्रामाणिक आचार्यों ने गृहस्थों को सिद्धान्तशास्त्र पढ़ने का प्रतिषेध नहीं किया, किन्तु खूब उपदेश दिया है।" यह प्राक्कथन ई० सन् १९९६ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर से प्रकाशित उक्त चौथी पुस्तक के तृतीय संस्करण में मुद्रित है, किन्तु 'सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार' लेख मुद्रित नहीं है। इसके विपरीत षट्खण्डागम-पुस्तक २ (जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर/सन् १९९२ ई०) की विषयसूची (पृ.८) में प्रस्तावना' शीर्षक के नीचे 'सिद्धान्त
और उनके अध्ययन का अधिकार' (पृष्ठ १-३) नामक लेख का उल्लेख है, किन्तु प्रस्तावना (पृष्ठ १-४) में इस शीर्षक के नीचे वह लेख नहीं है, जो षट्खण्डागम
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