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५८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ को प्रदर्शित कर रक्खा है। वे अचिन्त्यमहिमा-युक्त देव (समन्तभद्र) अपना हित चाहनेवालों के द्वारा सदा वन्दनीय हैं, जिनके द्वारा (सर्वज्ञ ही नहीं, किन्तु) शब्द भी ११४ भले प्रकार सिद्ध होते हैं। वे ही योगीन्द्र (समन्तभद्र) सच्चे अर्थों में त्यागी (त्यागभाव से युक्त अथवा दाता) हुए हैं, जिन्होंने सुखार्थी भव्यसमूह के लिए अक्षयसुख का कारणभूत धर्मरत्नों का पिटारा–'रत्नकरण्ड' नाम का धर्मशास्त्र दान किया है।
"इस अर्थ पर से स्पष्ट है कि दूसरे तथा तीसरे पद्य में ऐसी कोई बात नहीं, जो स्वामी समन्तभद्र के साथ सङ्गत न बैठती हो। समन्तभद्र के लिए देव विशेषण का प्रयोग कोई अनोखी अथवा उनके पद से कोई अधिक चीज नहीं है। देवागम की वसुनन्दिवृति, पण्डित आशाधर की सागारधर्मामृत टीका, आचार्य जयसेन की समयसारटीका, नरेन्द्रसेन आचार्य के सिद्धान्तसार-संग्रह और आप्तमीमांसामूल की एक वि० संवत् १७५२ की प्रति की अन्तिम पुष्पिका में समन्तभद्र के साथ देव पद का खुला प्रयोग पाया जाता है, जिन सब के अवतरण पं० दरबारीलाल जी कोठिया के लेख में उद्धृत हो चुके हैं।११५ इसके सिवाय वादिराज के पार्श्वनाथचरित से ४७ वर्ष पूर्व शक सं० ९०० में लिखे गये चामुण्डराय के त्रिषष्टिशलाका-महापुराण में भी देव उपपद के साथ समन्तभद्र का स्मरण किया गया है और उन्हें तत्त्वार्थभाष्यादि का कर्ता लिखा है।१६ ऐसी हालत में प्रो० साहब का समन्तभद्र के साथ देव पद की असङ्गति की कल्पना करना ठीक नहीं है, वे साहित्यिकों में देव विशेषण के साथ भी प्रसिद्धि को प्राप्त रहे हैं।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ. ४६२-४६४)।
"और अब प्रो० साहब का अपने अन्तिम लेख में यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखता कि "जो उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं, उन सब में देव पद समन्तभद्र के साथ-साथ पाया जाता है। ऐसा कोई एक भी उल्लेख नहीं, जहाँ केवल देव शब्द से समन्तभद्र का अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह वास्तव में कोई उत्तर नहीं, इसे केवल उत्तर के लिये ही उत्तर कहा जा सकता है, क्योंकि जब कोई विशेषण किसी के साथ जुड़ा होता है, तभी तो वह किसी प्रसंग पर संकेतादि के रूप में अलग से भी कहा जा सकता है, जो विशेषण कभी साथ में जुड़ा ही न हो, वह न तो अलग से कहा जा सकता है और न उसका वाचक ही हो सकता है। प्रो० साहब ऐसा कोई भी उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे, जिसमें समन्तभद्र के साथ स्वामी पद जुड़ने से पहले उन्हें केवल 'स्वामी' पद के द्वारा उल्लेखित किया गया हो।
११४. मूल में प्रयुक्त हए 'च' शब्द का अर्थ। ११५. अनेकान्त / वर्ष ८/किरण १०-११ / पृ. ४१०-४११। ११६. अनेकान्त / वर्ष ९/किरण १/पृ. ३३ ।
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