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५८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/ प्र०४ अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है, दोनों नहीं। वह एक बात कौन-सी हो सकती है, यही यहाँ पर विचारणीय है। तीसरे पद्य में उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं है, जो स्वामी समन्तभद्र की कृतिरूप से प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि 'योगीन्द्र' नाम के आचार्य-द्वारा रचा हुआ उसी नाम का कोई दूसरा ही ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों पद्यों में तीन आचार्य और उनकी कृतियों का उल्लेख है, भले ही वह दूसरा रत्नकरण्ड कहीं पर उपलब्ध न हो अथवा उसके अस्तित्व को प्रमाणित न किया जा सके। और तब इन पद्यों को लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है, वही स्थिर नहीं रहता, समाप्त हो जाता है अथवा यों कहिये कि प्रोफेसर साहब की तीसरी आपत्ति निराधार होकर बेकार हो जाती है। परन्तु प्रो० साहब को दूसरा रत्नकरण्ड इष्ट नहीं, तभी उन्होंने प्रचलित रत्नकरण्ड के ही छठे पद्य 'क्षुत्पिपासा' को आप्तमीमांसा के विरोध में उपस्थित किया था, जिसका ऊपर परिहार किया जा चुका है। और इसलिये तीसरे पद्य में उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि प्रचलित रत्नकरण्डश्रावकाचार ही है, तो तीनों पद्यों को स्वामी समन्तभद्र के साथ ही सम्बन्धित कहना होगा, जब तक कि कोई स्पष्ट बाधा इसके विरोध में उपस्थित न की जाय। इसके सिवाय, दूसरी कोई गति नहीं, क्योंकि प्रचलित रत्नकरण्ड को आप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकृत मानने में कोई बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी, उसका ऊपर दो आपत्तियों का विचार करते हुए भले प्रकार निरसन किया जा चुका है और यह तीसरी आपत्ति अपने स्वरूप में ही स्थिर न होकर असिद्ध तथा संदिग्ध बनी हुई है, और इसलिये प्रो० साहब के अभिमत को सिद्ध करने में असमर्थ है। जब आदि-अन्त के दोनों पद्य स्वामी समन्तभद्र से सम्बन्धित हों, तब मध्य के पद्य को दूसरे के साथ सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौर पर कल्पना कीजिये कि रत्नकरण्ड के उल्लेखवाले तीसरे पद्य के स्थान पर स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत स्वयंभूस्तोत्र के उल्लेख को लिये हुए निम्न प्रकार के आशय का कोई पद्य है
स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधिविनाशनम्।
विराग-द्वेष-वादादिमनेकान्त-मतं नुमः॥ "ऐसे पद्य की मौजूदगी में क्या द्वितीय पद्य में उल्लिखित देव शब्द को देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक कहा जा सकता है? यदि नहीं कहा जा सकता, तो रत्नकरण्ड के उल्लेख वाले पद्य की मौजूदगी में भी उसे देवनन्दी पूज्यपाद का वाचक नहीं कहा जा सकता, उस वक्त तक, जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाय कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है। क्योंकि असिद्ध साधनों के द्वारा कोई भी बात सिद्ध नहीं की जा सकती।
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