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अ० १८ / प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५८१ के बाद पृथक् रूप से उल्लेख करने की जरूरत होती, बल्कि उसी में अन्तर्भूत है। टीकाकार ने भी, शब्द के लौकिक और शास्त्रज ऐसे दो भेदों की कल्पना करके, यह सूचित किया है कि इन दोनों का ही लक्षण इस आठवें पद्य में आ गया है।१११ इससे ९वें पद्य में शब्द के 'शास्त्रज' भेद का उल्लेख नहीं, यह और भी स्पष्ट हो जाता है। तीसरे, ग्रन्थ भर में, इससे पहले, 'शास्त्र' या 'आगम' शब्द का कहीं प्रयोग नहीं हुआ, जिसके स्वरूप का प्रतिपादक ही यह ९वाँ पद्य समझ लिया जाता, और न 'शास्त्रज' नाम के भेद का ही मूलग्रन्थ में कोई निर्देश है, जिसके एक अवयव (शास्त्र) का लक्षण-प्रतिपादक यह पद्य हो सकता। चौथे, यदि यह कहा जाय कि ८वें पद्य में 'शाब्द' प्रमाण को जिस वाक्य से उत्पन्न हुआ बतलाया गया है, उसी का 'शास्त्र' नाम से अगले पद्य में स्वरूप दिया गया है, तो यह बात भी नहीं बनती, क्योंकि ८वें पद्य में ही दृष्टेष्टाव्याहत आदि विशेषणों के द्वारा वाक्य का स्वरूप दे दिया गया है और वह स्वरूप अगले पद्य में दिये हुए शास्त्र के स्वरूप से प्रायः मिलता-जुलता है। उसके दृष्टेष्टाव्याहत का अदृष्टेष्टाविरोधक के साथ साम्य है और उसमें अनुल्लंघ्य तथा आप्तोपज्ञ विशेषणों का भी समावेश हो सकता है, परमार्थाभिधायि विशेषण कापथघट्टन और सार्व विशेषणों के भाव का द्योतक है, और शाब्दप्रमाण को तत्त्वग्राहितयोत्पन्न प्रतिपादन करने से यह स्पष्ट ध्वनित है कि वह वाक्य तत्त्वोपदेशकृत् माना गया है। इस तरह दोनों पद्यों में बहुत कुछ साम्य पाया जाता है। ऐसी हालत में समर्थन में उद्धरण के सिवाय ग्रन्थ-सन्दर्भ के साथ उसकी दूसरी कोई गति नहीं, उसका विषय पुनरुक्त ठहरता है। पाँचवें, ग्रन्थकार ने स्वयं अगले पद्य में वाक्य को उपचार से 'परार्थानुमान' बतलाया है। यथा
स्व-निश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः।
परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः॥ १०॥ "इन सब बातों अथवा कारणों से यह स्पष्ट है कि न्यायावतार में 'आप्तोपज्ञ' नाम के ९वें पद्य की स्थिति बहुत ही सन्दिग्ध है, वह मूल ग्रन्थ का पद्य मालूम नहीं होता। उसे मूलग्रन्थकार-विरचित ग्रन्थ का आवश्यक अङ्ग मानने से पूर्वोत्तर पद्यों के मध्य में उसकी स्थिति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रन्थ की प्रतिपादनशैली भी उसे स्वीकार नहीं करती, और इसलिये वह अवश्य ही वहाँ एक उद्धृत पद्य जान पड़ता है, जिसे 'वाक्य' के स्वरूप का समर्थन करने के लिये रत्नकरण्ड पर से 'उक्तञ्च' आदि के रूप में उद्धृत किया गया है। उद्धरण का यह कार्य यदि मूलग्रन्थकार के द्वारा
१११."शाब्दं च द्विधा भवति-लौकिकं शास्त्रजं चेति। तत्रेदं द्वयोरपि साधारणं लक्षणं
प्रतिपादितम्।"
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