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५८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र० ४ हूँ, जो ईसा की ७वीं शताब्दी के ग्रन्थ में पाया जाता है और वह है रत्नकरण्ड श्रावकाचार के निम्न पद्य का सिद्धसेन के न्यायावतार में ज्यों का त्यों उद्धृत होनाआप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट - विरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥ ९ ॥
जाय,
'यह पद्य रत्नकरण्ड का एक बहुत ही आवश्यक अंग है और उसमें यथास्थान यथाक्रम मूलरूप से पाया जाता है। यदि इस पद्य को उक्त ग्रन्थ से अलग कर दिया तो उसके कथन का सिलसिला ही बिगड़ जाय । क्योंकि ग्रन्थ में, जिन आप्त, आगम (शास्त्र) और तपोभृत् (तपस्वी) के अष्ट अंगसहित और त्रिमूढतादिरहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया गया है, उनका क्रमशः स्वरूप-निर्देश करते हुए, इस पद्य से पहले 'आप्त' का और इसके अनन्तर 'तपोभृत्' का स्वरूप दिया है, यह पद्य यहाँ दोनों के मध्य में अपने स्थान पर स्थित है, और अपने विषय का एक ही पद्य है। प्रत्युत इसके, न्यायावतार में, जहाँ भी यह नम्बर ९ पर स्थित है, इस पद्य की स्थिति मौलिकता की दृष्टि से बहुत ही सन्दिग्ध जान पड़ती है। यह उसका कोई आवश्यक अङ्ग मालूम नहीं होता और न इसको निकाल देने से वहाँ ग्रन्थ के सिलसिले में अथवा उसके प्रतिपाद्य विषय में ही कोई बाधा आती है। न्यायावतार में परोक्ष प्रमाण के अनुमान और शाब्द ऐसे दो भेदों का कथन करते हुए, स्वार्थानुमान का प्रतिपादन और समर्थन करने के बाद इस पद्य से ठीक पहले शाब्द प्रमाण के लक्षण का यह पद्य दिया हुआ है
दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः ।
तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥ ८॥१०९
" इस पद्य की उपस्थिति में इसके बाद का उपर्युक्त पद्य, जिसमें शास्त्र ( आगम ) का लक्षण दिया हुआ है, कई कारणों से व्यर्थ पड़ता है। प्रथम तो उसमें शास्त्र का लक्षण आगम-प्रमाणरूप से नहीं दिया। यह नहीं बतलाया कि ऐसे शास्त्र से उत्पन्न हुआ ज्ञान११० आगमप्रमाण अथवा शब्दप्रमाण कहलाता है, बल्कि सामान्यतया आगमपदार्थ के रूप में निर्दिष्ट हुआ है, जिसे रत्नकरण्ड में सम्यग्दर्शन का विषय बतलाया गया है। दूसरे, शाब्दप्रमाण शास्त्रप्रमाण कोई भिन्न वस्तु भी नहीं है, जिसकी शाब्दप्रमाण
१०९. सिद्धर्षि की टीका में इस पद्य से पहले यह प्रस्तावना - वाक्य दिया हुआ है - " तदेवं स्वार्थानुमानलक्षणं प्रतिपाद्य तद्वतां भ्रान्तताविप्रतिपत्तिं च निराकृत्य अधुना प्रतिपादितपरार्थानुमानलक्षणं एवाल्पवक्तव्यत्वात् तावच्छाब्दलक्षणमाह । "
११०. स्व-परावभासी निर्बाध ज्ञान को ही न्यायावतार के प्रथम पद्य में प्रमाण का लक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाण के प्रत्येक भेद में उसकी व्याप्ति होनी चाहिये ।
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