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अ०१८/ प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७५ "घ-'त्वं शम्भवः सम्भवतर्षरोगैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवन में शम्भ-वजिन को सांसारिक तृषा-रोगों से प्रपीडित प्राणियों के लिये उन रोगों की शान्ति के अर्थ आकस्मिक वैद्य बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि अर्हज्जिन स्वयं तृषारोगों से पीडित नहीं होते, तभी वे दूसरों के तृषा-रोगों को दूर करने में समर्थ होते हैं। इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जराऽन्तकार्तं निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्य के द्वारा उन्हें जन्म-जरा मरण से पीडित जगत् को निरञ्जना शान्ति की प्राप्ति कराने वाला लिखा है, जिससे स्पष्ट है कि वे स्वयं जन्म-मरण से पीडित न होकर निरञ्जना शान्ति को प्राप्त थे। निरञ्जना शान्ति में क्षुधादि वेदनाओं के लिए अवकाश नहीं रहता।
__ "ङ–'अनन्तदोषाशयविग्रहोग्रहो विषङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित् 'जिन' के स्तोत्र में जिस मोहपिशाच को पराजित करने का उल्लेख है, उसके शरीर को अनन्तदोषों का आधारभूत बताया है। इससे स्पष्ट है कि दोषों की संख्या कुछ इनी-गिनी ही नहीं है, बल्कि बहुत बढ़ी-चढ़ी है। अनन्तदोष तो मोहनीयकर्म के ही आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोषों में मोह की पुट ही काम किया करती है। जिन्होंने मोहकर्म का नाश कर दिया है, उन्होंने अनन्तदोषों का नाश कर दिया है। उन दोषों में मोह के सहकार से होनेवाली क्षुधादि की वेदनाएँ भी शामिल हैं, इसी से मोहनीय का अभाव हो जाने पर वेदनीयकर्म को क्षुधादि वेदनाओं के उत्पन्न करने में असमर्थ बतलाया है।
"इस तरह मूल आप्तमीमांसा ग्रन्थ, उसके ९६वीं कारिका-सहित ग्रन्थसन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि टीकाओं और ग्रन्थकार के दूसरे ग्रन्थों के उपर्युक्त विवेचन पर से यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड का उक्त क्षुत्पिपासादि पद्य स्वामी समन्तभद्र के किसी भी ग्रन्थ तथा उसके आशय के साथ कोई विरोध नहीं रखता अर्थात् उसमें दोष का क्षुत्पिपासादि के अभावरूप जो स्वरूप समझाया गया है, वह आप्तमीमांसा के ही नहीं, किन्तु आप्तमीमांसाकार की दूसरी भी किसी कृति के विरुद्ध नहीं है, बल्कि उन सबके साथ सङ्गत है। और इसलिये उक्त पद्य को लेकर आप्तमीमांसा
और रत्नकरण्ड का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः इस विषय में प्रोफेसर साहब की प्रथम आपत्ति के लिये कोई स्थान नहीं रहता, वह किसी तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ पृ.४४९-४५१)। ६. पूर्व में रत्नकरण्ड का समन्तभद्रकर्तृत्व एवं प्राचीनता स्वीकृत
"अब मैं प्रो० हीरालाल जी की शेष तीनों आपत्तियों पर भी अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ, परन्तु उसे प्रकट कर देने के पूर्व यह बतला देना चाहता हूँ कि प्रो० साहब ने, अपनी प्रथम मूल आपत्ति को 'जैन इतिहास का
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