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५७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ (समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थों की छानबीन) ५. 'स्वदोषशान्त्या' आदि पद्यों में केवली के क्षुधादि दोषों की शान्ति का कथन
अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्र के दूसरे किसी ग्रन्थ में ऐसी कोई बात पाई जाती है, जिससे रत्नकरण्ड के उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्य का विरोध घटित होता हो अथवा जो आप्त-केवली या अर्हत्परमेष्ठी में क्षुधादि दोषों के सद्भाव को सूचित करती हो। जहाँ तक मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थों की छानबीन की है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई, जो रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य के विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विषय में उसका विरोध उपस्थित करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी ही बातें देखने में आती हैं, जिनसे अर्हत्केवली में क्षुधादि-वेदनाओं अथवा दोषों के अभाव की सूचना मिलती है। यहाँ उनमें से दोचार नमूने के तौर पर नीचे व्यक्त की जाती हैं
__ "क–'स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिन के स्तोत्र में यह बतलाया है कि शान्ति-जिनेन्द्र ने अपने दोषों की शान्ति करके आत्मा में शान्ति स्थापित की है और इसी से वे शरणागतों के लिये शान्ति के विधाता हैं। चूँकि क्षुधादिक भी दोष हैं और वे आत्मा में अशान्ति के कारण होते हैं-कहा भी है कि "क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना," अतः आत्मा में शान्ति की पूर्णप्रतिष्ठा के लिये उनको भी शान्त किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्ति के विधाता बने हैं और तभी संसारसम्बन्धी क्लेशों तथा भयों से शान्ति प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और यह ठीक ही है, जो स्वयं रागादिक दोषों अथवा क्षुधादि वेदनाओं से पीडित है, अशान्त है, वह दूसरों के लिये शान्ति का विधाता कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता।
"ख–'त्वं शुद्धिशक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिनशान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुशासन के वाक्य में वीरजिनेन्द्र को शुद्धि, शक्ति और शान्ति की पराकाष्ठा को पहुँचा हुआ बतलाया है, जो शान्ति की पराकाष्ठा (चरमसीमा) को पहुँचा हुआ हो, उसमें क्षुधादि वेदनाओं की सम्भावना नहीं बनती।
"ग-'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' इस धर्म-जिन के स्तवन में यह बतलाया है कि धर्मनाम के अर्हत्परमेष्ठी ने शाश्वत सुख की प्राप्ति की है और इसी से वे शङ्कर (सुख के करनेवाले) हैं। शाश्वतसुख की अवस्था में एक क्षण के लिये भी क्षुधादि दुःखों का उद्भव सम्भव नहीं। इसी से श्री विद्यानन्दाचार्य ने श्लोकवार्तिक में लिखा है कि 'क्षुधादिवेदनोद्भूतौ नाहतोऽनन्तशर्मता' अर्थात् क्षुधादि वेदना की उद्भूति होने पर अर्हन्त के अनन्तसुख नहीं बनता।
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