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अ०१८ / प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७३ कि "यथार्थतः वेदनीयकर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है। वस्तुतः अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूप से अपनी स्थिति तथा अनुभागादि के अनुरूप फलदान-कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है। किसी भी कर्म के लिये अनेक कारणों की जरूरत पड़ती है और अनेक निमित्तों को पाकर कर्मों में संक्रमण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समय से पहले उनकी निर्जरा भी हो जाती है और तपश्चरणादि के बल पर उनकी शक्ति को बदला भी जा सकता है। अतः कर्मों को सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है, मिथ्यात्व है और मुक्ति का भी निरोधक है।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ.४४५-४५८)।
"यहाँ 'धवला' पर से एक उपयोगी शङ्का-समाधान उद्धृत किया जाता है, जिससे केवली में क्षुधा-तृषा के अभाव का सकारण प्रदर्शन होने के साथ-साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्का का भी समाधान हो जाता है कि 'यदि केवली के सुख-दुःख की वेदना मानने पर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता, तो फिर कर्मसिद्धान्त में केवली के साता और असाता वेदनीय कर्म का उदय माना ही क्यों जाता०१ और वह इस प्रकार है
"सगसहाय-घादिकम्माभावेण णिस्सत्तितमावण्ण-असादावेदणीय-उदयादो भुक्खातिसाणमणुप्पत्तीए। णिप्फलस्स परमाणुपुंजस्स समयं पडि परिसदं (डं) तस्स कथमुदयववएसो? ण, जीवकम्मविवेगमेत्तफलं दह्ण उदयस्स फलत्तब्भुवगमादो।" ( वीरसेवामन्दिर-प्रति/पृ. ३७५, आरा-प्रति/पृ.७४१)१०६
"शङ्का-अपने सहायक घातिया कर्मों का अभाव होने के कारण निःशक्ति को प्राप्त हुए असातावेदनीयकर्म के उदय से जब (केवली में) क्षुधा-तृषा की उत्पत्ति नहीं होती, तब प्रतिसमय नाश को प्राप्त होनेवाले (असातावेदनीय कर्म के) निष्फल परमाणुपुञ्ज का कैसे उदय कहा जाता है?
___ "समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं, क्योंकि जीव और कर्म का विवेक-मात्र फल देखकर उदय के फलपना माना गया है।
___ "ऐसी हालत में प्रोफेसर साहब का वीतराग सर्वज्ञ के दुःख की वेदना के स्वीकार को कर्मसिद्धान्त के अनुकूल और अस्वीकार को प्रतिकूल अथवा असंगत बतलाना किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं ठहर सकता और इस तरह ग्रन्थसन्दर्भ के अन्तर्गत उक्त ९३वीं कारिका की दृष्टि से भी रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य को विरुद्ध नहीं कहा जा सकता।" (जै.सा.इ.वि.प्र./खं.१ / पृ.४४८)।
१०१. अनेकान्त/वर्ष ८/किरण २/पृ. ८९। १०२. धवला / ष.खं./पु.१२/४, २, ७, २६/ पृ. २४-२५ ।
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