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५७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८ / प्र०४ "अतः इस कारिका में जब केवली आप्त या सर्वज्ञ का कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियों का उल्लेख है, तब रत्नकरण्ड के उक्त छठे पद्य के साथ इस कारिका का सर्वथा विरोध कैसे घटित किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता, खासकर उस हालत में जब कि मोहादिक का अभाव और अनन्तज्ञानादिक का सद्भाव होने से केवली में दुःखादिक की वेदनाएँ वस्तुतः बनती ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीयादि कर्मों के अभाव में साताअसाता-वेदनीय-जन्य सुख-दुःख की स्थिति उस छाया के समान औपचारिक होती है, वास्तविक नहीं, जो दूसरे प्रकाश के सामने आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती। और इसलिये प्रोफेसर साहब का यह लिखना
तथा कारिकागत विद्वान् शब्द तत्त्वज्ञानी अर्थ का वाचक है, जैसा कि उपर्युक्त अष्टसहस्रीवाक्य में तत्त्वज्ञानवतः पद से स्पष्ट है। तत्त्वज्ञान से सन्तोषसुख अथवा आहार-ग्रहण एवं वैयावृत्य से कायसुख प्राप्त करनेवाला मुनि भी वीतराग (सुखनिष्कांक्ष) होने पर ही पापबन्ध से बचता है। फलस्वरूप वीतराग और विद्वान् दोनों एक ही षष्ठ-सप्तम गुण- थानवर्ती मुनि के विशेषण हैं, अलग-अलग दो मुनियों के नहीं। अतः यहाँ 'वीतराग' पद अरहन्त का वाचक नहीं है और न 'विद्वान्' पद सर्वज्ञ का। कारण यह है कि अरहन्त अपने में कायक्लेशादिरूप दुःख की उत्पत्ति नहीं करते, क्योंकि घातिकर्मों का क्षय हो जाने से कायक्लेशादि तप और केशलोच आदि दुःखोत्पादक क्रियाएँ अनावश्यक हो जाती हैं। इसी प्रकार मोहनीय के क्षय से इच्छाओं का अभाव हो जाने पर असन्तोष का अभाव हो जाता है, जिससे सन्तोषसुख की प्राप्ति के लिए तत्त्वज्ञान में उपयोग लगाने की आवश्यकता नहीं रहती।
डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया का भी कथन है कि "आप्तमीमांसा कारिका ९३ में जो वीतरागमुनि में सुखदुःख स्वीकार किया गया है, वह छठे आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागमुनियों के ही बतलाया गया है, न कि तेरहवें चौदहवें-गुणस्थानवर्ती मुनि (केवली) के---वस्तुतः वीतरागमुनि शब्द से यहाँ समन्तभद्र को वह मुनि विवक्षित है, जिसके केशलुंचनादि कायक्लेश संभव है। और यह निश्चित है कि वह केवली के नहीं होता। वीतरागमुनि शब्द का प्रयोग केवली के अलावा छठे आदि गुणस्थानवर्तियों के लिए भी साहित्य में हुआ है। यथा१. सुविदितपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥ १/१४॥ प्रवचनसार। २. "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश।" तत्त्वार्थसूत्र /९/१० ।
"--- स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग जैसा ही वीतमोह शब्द का प्रयोग केवलीभिन्नों (केवली से भिन्न मुनियों) के लिए 'आप्तमीमांसा' का० ९८ में किया है। इससे स्पष्ट है कि रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का एक ही अभिप्राय है और इसलिए वे दोनों एक ही ग्रन्थकार की कृतियाँ हैं और वे हैं स्वामी समन्तभद्र।" ( लेख-'क्या रत्नकरण्डश्रावकाचार स्वामी समन्तभद्र की कृति नहीं है?'/ 'अनेकान्त'/ वर्ष ६/ किरण १२/ जुलाई १९४४ / पृ.३८४)।
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