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अ०१८ / प्र०४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७७ शिवभूति, भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य और उमास्वाति के गुरु के गुरु शिवश्री ये चारों एक ही व्यक्ति हैं। इसी तरह शिवभूति के शिष्य एवं उत्तराधिकारी भद्र, नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु, द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष की भविष्य-वाणी के कर्ता व दक्षिणापथ को विहार करनेवाले भद्रबाहु, कुन्दकुन्दाचार्य के गुरु भद्रबाहु, वनवासी सङ्घ के प्रस्थापक समन्तभद्र और आप्तमीमांसा के कर्ता सामन्तभद्र ये सब भी एक ही व्यक्ति हैं।'
"और यदि प्रोफेसर साहब अपने उस पूर्वकथन को वापिस न लेकर पिछली तीन युक्तियों को ही वापिस लेते हैं, तो फिर उन पर विचार की जरूरत ही नहीं रहती। प्रथम मूल आपत्ति ही विचार के योग्य रह जाती है और उस पर ऊपर विचार किया ही जा चुका है।
__ "यह भी हो सकता है कि प्रो० साहब के उक्त विलुप्त अध्याय के विरोध में जो दो लेख (१. क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं?, २. शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार) वीरसेवामन्दिर के विद्वानों द्वारा लिखे जाकर अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं१०७ और जिनमें विभिन्न आचार्यों के एकीकरण की मान्यता का युक्तिपुरस्सर खण्डन किया गया है तथा जिनका अभी तक कोई भी उत्तर साढ़े तीन वर्ष का समय बीत जाने पर भी प्रो० साहब की तरफ से प्रकाश में नहीं आया, उन पर से प्रो० साहब का विलुप्त अध्याय-सम्बन्धी अपना अधिकांश विचार ही बदल गया हो और इसी से वे भिन्न कथन द्वारा शेष तीन आपत्तियों को खड़ा करने में प्रवृत्त हुए हों। परन्तु कुछ भी हो, ऐसी अनिश्चित दशा में मुझे तो शेष तीनों आपत्तियों पर भी अपना विचार एवं निर्णय प्रकट कर देना ही चाहिए। तदनुसार ही उसे आगे प्रकट किया जाता है।" (जै.सा. इ.वि.प्र./खं.१/पृ.४५२-४५३)। ७. सर्वार्थसिद्धि में रत्नकरण्ड के शब्दार्थादि का अनुकरण
"II. रत्नकरण्ड और आप्तमीमांसा का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने के लिये प्रो० साहब की जो दूसरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "रत्नकरण्ड का कोई उल्लेख शक संवत् ९४७ (वादिराज के पार्श्वनाथचरित के रचनाकाल) से पूर्व का उपलब्ध नहीं है तथा उसका आप्तमीमांसा के साथ एककर्तृत्व बतलानेवाला कोई भी सुप्राचीन उल्लेख नहीं पाया जाता।" यह दलील वास्तव में कोई दलील नहीं है, क्योंकि उल्लेखाऽनुपलब्धि का भिन्नकर्तृत्व के साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है, उल्लेख के न मिलने पर भी दोनों का एक कर्ता होने में स्वरूप से कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। इसके सिवाय, यह प्रश्न पैदा होता है कि रत्नकरण्ड का वह पूर्ववर्ती उल्लेख प्रो० सा० को उपलब्ध नहीं है या किसी को भी उपलब्ध नहीं है अथवा वर्तमान १०७. अनेकान्त / वर्ष ६/किरण १०-११ और वर्ष ७/किरण १-२।
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