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परीक्षा
५६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१८/प्र०४ के अभाव का भी समावेश है, उनके विषय में एक भी शब्द ग्रन्थ में ऐसा नहीं पाया जाता, जिससे ग्रन्थकार की दृष्टि में उन अतिशयों का केवली भगवान में होना अमान्य समझा जाय। ग्रन्थकार महोदय ने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यस्ति' इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए अपि शब्दों के द्वारा इस बात को स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वे अर्हत्केवली में उन विभूतियों तथा विग्रहादिमहोदय-रूप अतिशयों का सद्भाव मानते हैं, परन्तु इतने से ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते, क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) तथा रागादियुक्त देवों में भी पाये जाते हैं, भले ही उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूप में न हों, जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवली में पाये जाते हैं। और इसलिये उनकी मान्यता का आधार केवल आगमाश्रित श्रद्धा ही नहीं है, बल्कि एक दूसरा प्रबल आधार वह गुणज्ञता अथवा परीक्षा की कसौटी है, जिसे लेकर उन्होंने कितने ही आप्तों की जाँच की है और फिर उस परीक्षा के फलस्वरूप वे वीर-जिनेन्द्र के प्रति यह कहने में समर्थ हुए हैं कि 'वह निर्दोष आप्त आप ही हैं' स त्वमेवासि निर्दोषः। साथ ही युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् इस पद के द्वारा उस कसौटी को भी व्यक्त कर दिया है, जिसके द्वारा उन्होंने आप्तों के वीतरागता और सर्वज्ञता जैसे असाधारण गुणों की प की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और शास्त्र से अविरोधरूप यथार्थ होते हैं,
और आगे संक्षेप में परीक्षा की तफसील भी दे दी है। इस परीक्षा में जिनके आगमवचन युक्ति-शास्त्र से अविरोधरूप नहीं पाये गये, उन सर्वथा एकान्तवादियों को आप्त न मान कर आप्ताभिमानदग्ध घोषित किया है। इस तरह निर्दोष-वचन-प्रणयन के साथ सर्वज्ञता और वीतरागता जैसे गुणों को आप्त का लक्षण प्रतिपादित किया है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आप्त में दूसरे गुण नहीं होते, गुण तो बहुत होते हैं, किन्तु वे लक्षणात्मक अथवा इन तीन गुणों की तरह खास तौर से व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये आप्त के लक्षण में वे भले ही ग्राह्य न हों, परन्तु आप्त के स्वरूप-चिन्तन में उन्हें अग्राह्य नहीं कहा जा सकता। लक्षण और स्वरूप में बड़ा अन्तर है। लक्षणनिर्देश में जहाँ कुछ असाधारण गुणों को ही ग्रहण किया जाता है, वहाँ स्वरूप के निर्देश अथवा चिन्तन में अशेष गुणों के लिए गुञ्जाइश रहती है। अतः अष्टसहस्रीकार ने विग्रहादिमहोदयः का जो अर्थ शश्वन्निःस्वेदत्वादिः किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है, उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा० ने जो यह लिखा है कि "शरीरसम्बन्धी गुणधर्मों का प्रकट होना, न होना आप्त के स्वरूपचिन्तन में कोई महत्त्व नहीं रखता"९४ वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्र ने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में ऐसे दूसरे कितने ही गुणों का चिन्तन किया है, ९४. अनेकान्त/वर्ष ७/किरण ७-८/ पृ.६२।
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